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शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५
६५ए उत्कृष्ट रसना बंधाधिकारी कह्या. एवं (ए) प्रकृतिना उत्कृष्ट रस बंध खामी कह्या. इति समुच्चयार्थः ॥ ६ ॥
तमतमगा उजोयं, सम्मसुरा मणुय उरल उग वरं ॥
अपमत्तो अमराज, चन गश मिडान सेसाणं ॥ ६ ॥ अर्थ-तमतमगा के तमतमा एवे गोत्रे श्रने माघवती नामें सातमी नरक पृथवी. तेना नारकी तथा विध अकाम निरायें करी, कर्म खपावतां थकां विशुद्ध परिणामें करी सम्यक्त्व पामवाने अर्थे यथाप्रवृत्तिकरण करे, तिहां अपूर्वकरणे करी अनंत. गुण विशुद्धियें बहुल कर्म खपावतां ग्रंथिन्नेदे अने अनिवृत्तिकरणे करी मिथ्यात्वनी स्थितिना बे नाग करे, ते अंतर करणथी प्रथम स्थिति, ने चरम समयें जे थकी थागले समय सम्यक्त्व लेशे ते मिथ्यात्व स्थितिने चरम समयें उजोयं के उद्यो. तनाम कर्मनो उत्कृष्ट रसबंध करे, तथा बीजा देवता नारकी तो एवी विशुद्धियें वर्त्तता मनुष्य प्रायोग्य बांधे, तथा तिर्यच तो मनुष्य भने देवता प्रायोग्य बांधे, श्रने सातमी नरकना नारकीने तो नव प्रत्ययें देव तथा मनुष्य प्रायोग्यनो बंध नथी, ते स्थानके ए उद्योतनामनी पुण्यप्रकृति तिर्यंच गति सहचारी बांधे. एना बंधकमांडे एहज अत्यंत विशुद्धि बे.
सम्मसुरा के सम्यक्त्वदृष्टि देवता तो मणुयउरलयुग के मनुष्यहिक तथा औदारिकटिक अने वरं के वज्रषजनाराच संघयण, ए पांच पुण्यप्रकृति मनुष्यगति प्रायोग्य अति विशुद्ध सम्यक्दृष्टि देवता, उत्कृष्ट रसें बांधे, तेथी ते एना खामी जाणवा. जे जणी तिर्यंच तथा मनुष्य एवी विशुद्धियें वर्त्ततो देव प्रायोग्यज बांधे, श्रने देवता एवी विशुद्धियें मनुष्य प्रायोग्यज बांधे. तेथी देवताज एना बंधाधिकारी लीधा; अने मिथ्यात्वीने पण एवी विशुद्धि न होय, तेथी सम्यदृष्टि देवताने नंदी. श्वरें चैत्यवंदन, जिनकल्याणक महोत्सवादिक, जिनव्याख्यान श्रवणादिक अनेक सम्यक्त्व उज्ज्वलतानां कारण होय, अने नारकी सम्यदृष्टिने पण एवा कारणने अनावें ए पांच प्रकृतिनो उत्कृष्ट रसबंध न होय, तेथी ते एना उत्कृष्ट रसबंधाधिकारी न कह्या. परंतु देवताज कह्या.
अपमत्तो के अप्रमत्त गुणस्थानकें वर्त्ततो साधु प्रमत्त गुणगणाथी श्रमराउ के. देवायु बंध करतो अप्रमत्तें चढे, ते अति विशुद्धियें देवायुनी उत्कृष्टस्थिति तेत्रीश सागरोपमनी बांधतो उत्कृष्ट रसपणे बांधे; देवायुनी उत्कृष्टी स्थिति अने उत्कृष्ट रस, ए बेहु अति विशुद्धपणे बंधाय. देवायुना बंधकमांहे एहिज अति विशुद्ध बंधस्थानक
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