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________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ अर्थ-अपमा के० अप्रमादि साधु अप्रमत्त गुणगणा थकी प्रमत्तें आवतो होय, एटले आगले समयें प्रमत्त अवश्य थशे एवो अप्रमत्त साधु, संक्लिष्ट थको हारगपुगं के थाहारक शरीर अने थाहारकांगोपांग, ए बे नामकर्मनी प्रकृतिनो जघन्यरसबंध करे. जे जणी ए बे पुण्यप्रकृति ने, माटे एनो मंदरस संक्शे बंधाय. थाहारकना बंधकांहे एवो संक्वेश बीजे कोइ स्थानकें नश्री, ते माटें. तथा मिथ्यात्वादिक प्रमत्तांत गुणगणे तो ए आहारकड़िकनो बंधज नथी, अने सातमे तथा थाठमे गुणगणे एनो बंध ते गुणगणां तो एथी विशुद्ध जे. केम के प्रमत्तथी अप्रमत्ते चढतो पण विशुक बे. एवं वीश प्रकृति थ. सुनिद्द के एक निडा, बीजी प्रचला, ए निजाहिक; असुवन्न के श्रशुलवर्ण, अशुजगंध, अशुजरस अने अशुजस्पर्श; हासरश्कुछ। के हास्य, रति अने जुगुप्सा तथा जयमुवघाय के जयमोहनीय श्रने उपघात, ए अगीबार प्रकृति थ. तेमां नव प्रकृतिनो मंदरस तो मपुवो के अपूर्वकरणनामा आठमुं गुणगणुं तेना सात नाग , ते मांदेला बहा नागने प्रांतें चरम समयें जघन्यरस बांधे, श्रने निघा तथा प्रचला, ए बे निसानो जघन्यरस अपूर्वकरणना प्रथम नागें आपणा बंधना प्रबंधव्यवछेदथी प्रथम समयेंज जघन्यरस बांधे. ए अगीबार पापप्रकृति . ते जणी श्रति विशुळे मंदरसे बंधाय. एना बंधकमां एहिज अति विशुद्धि , केम के एथी अतिविशुकि श्रागले गुणगणे ने खरी, पण तिहां तो ए श्रगीथार प्रकृतिनो बंधज नथी, तथा अहीं पाठमां कह्यो नथी; तथापि ए अपूर्वकरण कपकश्रेणीनो लेवो, केम के उपशम श्रेणीना अपूर्वकरण थकी दपक श्रेणीनुं अपूर्वकरण अनंतगुणुं विशुक बे. अहीं कोशएक कहे डे के, एम कहेशो तो एना अजघन्य बंधने सादिसांतपणुं न संजवे ? केम के रूपक श्रेणीथी पडवू नथी अने ते तो जघन्य बंधथी पमतो जेवारें अजघन्य रस बाँधे, तेवारें अजघन्यनी सादि होय, अने क्षपक श्रेणी तो जघन्यरस बांधीने वलतो अबंधक थाय ते जणी ए वात विचारवा योग्य बे. एवं एकत्रीश प्रकृति थ. अनियट्टीपुरिससंजलणे के अनिवृत्तिकरण एवे नामे नवमुं गुणगणुं . जीव चारित्रमोहनीय खपाववाने पण त्रण करण करे. तिहां अप्रमत्त गुणगणुं यथा प्रवृत्तिकरण अने आठमुं गुणगणुं अपूर्वकरण तथा नवमुं गुणगणुं अनिवृत्तिकरण, ते नवमा गुणगणाना पांच नाग करीयें, तिहां एकेका नागें अनुक्रमें पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध, संज्वलन मान, संज्वलनी माया अने संज्वलनो लोन,ए पांच मोहनीयनी प्रकृतिनो बंध व्यवछेद करे,तिहां पोतपोताना बंधने बेहले बंधे, मंदरस बंध होय. ए पांच पाप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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