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________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ६६३ प्रकृतिनो विशुद्धियें मंदरस बंधाय बे. ए पांचना बंधक मांहे एहिज प्रति विशुद्धता बे एवं बत्रीश प्रकृति थइ ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ७० ॥ विग्धावरणे सुमो, मणुतिरिच्या सुहुम विगल तिगान ॥ aalaah ममरा, निरया नकोय उरल डुगं ॥ ७१ ॥ अर्थ - विग्धावर के० दानांतरायादिक पांच अंतरायनी प्रकृति, तथा आवरण एटले पांच ज्ञानावरणीय ने चार दर्शनावरणीय, ए चौद प्रकृतिनो जघन्य रसबंध स्वामी, सुदुमो के० सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानकवर्त्ति रूपक श्रेणीवालो पोताना बंधने चरम बंधे होय, ए चौद प्रकृतिना जघन्य रसबंधमांदे एथी अधिक विशुद्धि, बीजे कोइ स्थानकें नथी. ए पापप्रकृति बे, माटें विशुद्धियें मंदरस बांधे. सुदुम के० सूक्ष्म, अपर्याप्त अने साधारण, ए सूक्ष्मत्रिक तथा विगलतिग के० विकलजातित्रिक, खाउ के चार गतिनां श्रायु, एवं दश प्रकृति तथा वेविक के० वैक्रियशरीर, वैक्रियांगोपांग, देवगति, देवानुपूर्वी, नरकगति, नरकानुपूर्वी, ए वैक्रिय ट्रक कहीयें. ए शोल प्रकृतिना मंदरसबंधस्वामी मणुतीरिया के० मनुष्य ने तिर्यंच होय. ए शोल प्रकृतिमां देवत्रिक, वैक्रियद्विक, मनुष्यायु छाने तिर्यगायु, ए सात पुण्यप्रकृति बे, ते जणी एनो मंदरस पोताना बंधाध्यवसाय स्थानकमांहे जे मीनाध्यवसाय स्थानक बे, तेणे करी पोताना बंधकमांहे जे प्रति संक्लिष्ट होय ते बांधे, नरकत्रिक, सूक्ष्मत्रिक तथा विकलजातित्रिक, ए नव पापप्रकृति बे, ते जी एना मंदरस बंध स्वामी पोताना बंधाध्यवसाय स्थानक मध्यें जेने घं विशुद्धिपएं होय ते एनो जघन्यरस बंध स्वामी होय, ए शोले प्रकृतिना मंदरस धाधिकारी मनुष्य ने तिर्यंच तत्प्रायोग्य विशुद्धि तथा संशें वर्त्तता होय, जे जणी ए शोल प्रकृति मध्यें मनुष्यायु ने तिर्यगायु, ए बे खायु विना शेष चौद प्रकृतिनो बंध तो जव प्रत्ययेंज देवता तथा नारकीने न होय, तेथी ते, एना बंधाधिकारी नथी, तथा मनुष्यायु ने तिर्यगायुनो पण जघन्य स्थितिबंध करतां मंदबंधा ते जघन्य स्थिति तो कुलकनवरूप बे तेनो बंध देवता नारकीने न होय, तेथी तेने मंदरस न बंधाय. जोय के उद्योतनामकर्म अने उरलडुगं के० श्रदारिक शरीर छाने श्रदारिक अंगोपांग, एत्रण प्रकृतिना जघन्यरस बंधाधिकारी ममरा के० मिथ्यात्वी देवता तथा निरया के० नारकी होय. जे जणी एना बंधाध्यवसायस्थानक मध्यें संक्वेश स्थानके वर्त्तता तिर्यग्गति प्रायोग्य बांधता थका एवा जीव होय, तेमांहे पण श्रदा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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