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शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ रिक अंगोपांगना मंदरस बंधक त्रीजा देवलोकथी मांडीने सहस्रारांत लगेंना देवता तो एवे संक्शे वर्त्तता एकेंजियप्रायोग्य बांधे, ते मध्ये औदारिक अंगोपांगनो तो जघन्यरसबंध नथी, ते जणी ते एना अधिकारी नहीं जाणवा. तथा पर्याता पंचेंजिय, मनुष्य, तिर्यंच पण एवे संक्शे वर्त्तता नरक प्रायोग्य नामकर्म बांधे, ते मध्ये ए त्रण प्रकृतिनो बंध नथी, तेथी ते पण एना अधिकारी न कह्या, अने मिथ्यात्वी देव अधिकारी कह्या. एवं (ए) प्रकृति थ. ॥७॥ .. तिरि जुग नियं तमतमा, जिण मविरय निरय विणिगथा वरयं ॥ - आसुहु मायव सम्मो, वसायथिर सुद जसा सियरा ॥७॥
अर्थ-तिरिऽग के तिर्यंचगति अने तिर्यंचानुपूर्वी, ए तिर्यंचछिका नियं के नीचैर्गोत्र, ए त्रण प्रकृतिना जघन्यरसबंध स्वामी, तमतमा के सातमी नरक पृथवीना नारकी सम्यक्त्वानिमुख एवा मिथ्यात्वने चरम समयें वर्तता होय, जे जणी एवी विशुद्धियें वर्त्तता बीजा देवता तथा नारकी होय तो ते मनुष्य प्रायोग्य बांधे. अने सातमी नरकना नारकीने तो मिथ्यात्व थकां नवप्रत्ययेंज मनुष्य प्रायोग्यनो तथा उचैर्गोत्रनो बंध नथी, तो ते स्थानकें ए त्रण प्रकृतिनो बंध करे, ए त्रणे पापप्रकृति में, ते जणी विशुद्धियें मंदरस बंधाय. एना बंधकमांहे ए हिज अति विशुद्धि , ते जणी ए एना अधिकारी कह्या.
जिणमविरय के० जिननामकर्मना जघन्य रसबंधना स्वामी अविरति सम्यकदृष्टि मनुष्य, जेणे नरकायु बांध्या पली दायोपशमिक सम्यक्त्व पामी, कथंचित् वली नरके जातो सम्यक्त्व वमे ते सम्यक्त्व वमतां बेबे समय जिननामकर्मनो मंदरस बांधे, एना बंधकपणामाहे एहिज अति संक्लिष्ट होय.
निरयविण के० एक नरकगति विना शेष त्रण गतिना जीव, मिथ्यात्वी मध्यमपरिणामें वर्त्तता त्रस बांधी स्थावर बांधतां पंचेंजियजाति बांधीने गथावरयं के ए. केंजियजाति नामकर्म बांधतां घोलना परिणामी होय. जे जणी अवस्थित परिणामें रहेतां तेवी विशुकि न होय, ते नणी परावर्त्तमान लीधा, तथा नारकी तो जव प्रत्ययेंज एकेंजियजाति अने स्थावरनामकर्मनो बंध नथी करता, तेथी ते एना अधिकारी नथी. ए बे प्रकृति, मिथ्यात्व प्रत्ययिकी बे, ते जणी नारकी विना शेष त्रण गतिना मिथ्यात्वी जीव, एकेंजियजाति तथा स्थावरनाम कर्मना जघन्यरस बंधाधिकारी कह्या.
श्रासुहुम के आ एटले मर्यादायें एटले सौधर्म लगेंना देवता जाणवा. अहीयां समश्रेणीयें बेहु देवलोक . ते जणी ईशान देवलोक पण लेवो; एटले नवनपात,
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