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________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. Ա ६६५ व्यंतर, ज्योतिषी, सौधर्म ने ईशानना देव देवी मिथ्यादृष्टि अति संक्लिष्ट थका एकेंद्रिय प्रायोग्य बांधतां श्रायव के० आतप नामकर्मनो मंदरस बांधे, जे जणी मनुष्य तथा तिर्यंच, एवे संक्लेरों वर्त्तता नरक प्रायोग्य बांधे. तेथी ते एना अधिकारी नहीं, अने सनत्कुमारादिक देवोने तो एकेंद्रिय प्रायोग्यनो बंधज नथी, तेथी ते पण न लीधा. सम्मोव के सम्यकदृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि पंचेंद्रिय जीव, अंतरमुहूर्त्त अंतरमुहूर्त्तने फेरसारें साय के० शातावेदनीय, थिर के० स्थिर, सुइ के० शुज, जसा के० यश, ए चार प्रकृतिने सइयरा के० इतर सहित करीयें. एटले अशाता, अस्थिर, अशुभ अने यश, एम ए चारे एनी विरोधिनी परावर्त्तमान प्रकृतियें सहित करी तेवारें आठ प्रकृति याय. ते अंतरमुहूर्त्त शाता, अंतरमुहूर्त्त अशाता, ए रीतें घोलना परिणामें बांधतो एश्राव प्रकृतिनो मंदरस बांधे, ते प्रमत्त गुणगणा लगें बांधे, अने उपरले गुणठाणे अध्यवसायस्थानकें अवस्थितपणे रहेतो एक शाताज बंधाय, तेथी मिथ्यात्वादिक व गुणगणां लगें ए आठ प्रकृतिना जघन्य रसबंध स्वामी होय. एवं चोराशी प्रकृति यश. जावना कहे बे. जीवने मिथ्यात्वें अतिसंक्लेशे अशातानी त्रीश कोमाकोमी सागरोपम ने अस्थिर, अशुभ तथा अयशःकीर्तिनी वीश कोडाकोडी सागरोपमनी उत्कृष्टी स्थिति अवस्थितपणे बंधाय, तिहां एनी वीरोधिनी चार प्रकृतिनो बंध नथी, तेथी एकादिक समयनी स्थिति हीन करतां यावत् पंदर कोकाकोडी तथा त्रण प्रकृतिनी दश कोडाकोमी सागरोपम प्रमाण स्थितिबंधना हेतु श्रध्यवसायस्थानक लगें तो ए चार पापप्रकृतिनो निरंतरपणे बंध पडे, ते माटें तिहां मंदरस न होय, तथा जेवारें पंदर कोडाकोडी सागरोपम वेदनीयनो ने दश कोडाकोडी सागरोपम नामकर्मनो जे अध्यवसायस्थानकें बंध पडे तेवारें तिहांथी पढी शाता, अशातानो तथा स्थिर, अस्थिरनो तथा शुभ, अशुजनो ने यश, श्रयशनो परावर्त्ते - तरमुहूर्त्त लगें फेरसारें बंध करें, एमज प्रथम गुणठाणे अंतःको माकोडी प्रमाण स्थितिलगें पण घोलना परिणामे अंतरमुहूर्त्तने यांतरे ए आठ प्रकृतिनो बंध करतो मंदरस बांधे, जे जणी श्रप्रमत्तादिक खागला गुणठाणे विशुद्धि जणी शातादिक चार प्रकृति विरोधिनीपणेज बांधे. तथा एकेंद्रियादिक एनी लघु स्थिति बांधे, पण मंदरस न बांधे ॥ ७२ ॥ तस वन्न ते चन मणु, खगइ डुग पििद सास परघुचं ॥ संघयणा गिइ नपु थी, सुजगि अरति मिचन गइया ॥ ७३ ॥ ૪ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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