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कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ.
४१३
पाठांतर गाया ॥ जंवेणि याहार डुंग, श्रीणातिग नराज म पमत्तता गुणयालस जोगिनदी, रणंतु अणुदीगु जोगी ॥ २४ ॥
अर्थ-तसतिग के० त्रसत्रिक, पणिदि के पंचेंद्रिय जाति, मणुश्राजग के० मनुष्यायु ने मनुष्यगति, जिणुच्चंति के० जिननाम ने उच्चैर्गोत्र. ए बार प्रकृतिना उदयनो योगी गुणठाणाने चरिमसमयंतो के अंतसमयें अंत थाय. एटले उदर्जसामत्तो के उदयाधिकार संपूर्ण थयो. उदउवुदीरणयापरमपमत्ताइसगगुणेसु के० उदयनी पेरें उदीरणा जाणवी. पण एटलुं विशेष जे, अप्रमत्तादिक सात गुणठाणे उदीरात्रिक न्यून जावो. पाठांतरें पमत्ताईसगतिगुणा के० श्रप्रमतादिक सात गुणठाणे उदयन प्रकृति कही बे, ते थकी उदीरणात्रिक ऊएं कहेवुं. ॥ २३ ॥
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॥ हवे पाठांतर गाथानो अक्षरार्थ कहे . ॥
वेणि के० जे वेदनीय बे तथा आहारडुग के० श्राहारकद्विक, श्रीप तिग के० श्रीत्रिक, नराज के० मनुष्यायु, ए ड के० श्राठ प्रकृतिनो उदीरणानो विछेद पमत्तता के० प्रमत्तगुणठाणे याय. तेथी श्रप्रमत्तादिक गुणठाणे उदयश्री उदीरणा त्रण त्रण प्रकृतिनी करीयें, तेवारें यावत् गुणयालसजो गिजदीरणंतु के० जंगणचालीश प्रकृतिनी उदीरणा सयोगी गुणठाणे होय. अणुदी राजोगी के अने योगी गुणअनुदीरक होय ॥ इत्यक्षरार्थः ॥ २४ ॥
त्रसनाम, बादरनाम, पर्याप्तिनाम ए त्रसत्रिक ए जीवविपाकीनी, एवं सात. पंचेंप्रियजातिनामकर्म, पंचेंद्रिय एवा उदयिकपर्याय हेतु जवचरमसमय सुधी होय, एवं श्रा, मनुष्यायुप्रकृति ते मनुष्य जव विपाकीनी जणी जवचरमसमयसुधी एनो उदय होय, एवं नव, मनुष्यगतिनामकर्म पण मनुष्य एवा उदयिकपर्याय हेतु एवं दश, जिननामकर्म पण तीर्थंकरपर्यायहेतु चरमसमयसुधी होय. एवं अगी चार प्रकृति थ ाने उचैर्गोत्र पण जीवविपाकी जणी चरमसमयसुधी लाजे. ए बार प्रकृतिना उदयनो तथा एनी सत्तानो विछेद योगी गुणवाणाने बेहेले समयें होय, जेमाटे तेवार पढी कर्म कलंकरहित मनुष्यत्वादिक उदयिक पर्याय अनभिधेय सहजानंदस्वरूपी, शुद्धोपयोगी, ध्येयसिद्धदशा अनुभवे, तेथी ए उदय विछेद अनंत होय ॥ इति श्रीकर्मस्तवटबार्थे उदयाधिकारः समाप्तः ॥
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