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शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५
५१ अर्थ-श्राहारसत्तगंवासवगुणे के एक आहारक शरीर, बीजं श्राहारकउपांग, त्रीजु आहारकसंघातन, चोथु आहारकथाहारकबंधन, पांचमुं आहारकतैजसबंधन, हुं आहारककार्मणबंधन अने सातमु थाहारकतैजसकामणबंधन, ए सात प्रकृति जे जीवें तथाविध विशुद्धचारित्र प्रत्ययें अप्रमत्तगुणगणे बांधीने तथाविध संक्लेश अध्यवसायें मिथ्यात्व गुणगणा लगें श्रावे, तथा कोश्एक विशुमाध्यवसायें केवलज्ञान पण पामे तेथी सर्व गुणगणे एनी सत्ता होय अने कोइएक जीव, ए सात प्रकृति बांध्या विनाज सर्व गुणस्थानक स्पर्श, तेने ए सात प्रकृतिनी सत्ता सर्व गुणगणे न होय. ए रीतें नजना जाणवी. ___ तथा जिननामकर्मनी पण ए रीतेंज जजना जाणवी. जे जणी चोथा गुणगणाथी लश्ने श्रपूर्वकरणना बहा पाया लगें जिननामनी बंधनूमि त्यां विशुद्धाध्यवसायें जिननाम बांधी पड़ी संक्लेशे मिथ्यात्वे जाय तेथी मिथ्यात्वे पण एनी सत्ता होय पण बितिगुणे विणातिछं के बीजे अने त्रीजे गुणगणे तीर्थंकरनामकर्मनी सत्तावालो न श्रावे तेथी ए बे गुणगणाविना शेष बार गुणगणे जिननामनी सत्ता पामीये. उपरो गुणगणे पण चढतां जिननामनी सत्ता होय अने जे जीव जिननाम बांध्याविना सर्व गुणगणां स्पर्शे तेनी अपेक्षायें सर्व गुणगणे जिननामनी सत्ता न होय एटले बीजे, त्रीजे गुणगणे जिननामनी सत्ता नज होय अने बीजा गुणगणाउँने विषे जजना जाणवी.
नोनयसंतेमिछो के तथा आहारकशरीरादिक सात प्रकृतिनी सत्ता बतां श्रने जिननामनी सत्ता बतां, ए उन्नयनी सत्ता साथें बतां तेने मिथ्यात्व गुणगणुं न होय, जे जणी नामकर्मनुं एकसो त्रण, तथा त्र्याएं प्रकृतिनुं सत्तास्थानक मिथ्यात्वगुणगणे न पामिये, मात्र थाहारकसप्तक तथा जिननाम, ए बेहुमांहेथी एकनी सत्ता बतां मिथ्यात्व होय, तेमध्ये अंतमुहुत्तंनवेतिछे के अंतर मुहूर्त लगें जिननामनी सत्ता मिथ्यात्वें सहीये पण अधिक न पामीयें, जे जणी कोइएक सम्यक्दृष्टि जीवें पूर्व नरकायु बांध्यु डे अने ते जीव श्रायु बांध्या पली दायोपशमिक सम्यक्त्व पामीने तथाविध अध्यवसायें जिननाम बांधे, ते मरण समयें सम्यक्त्व वमतो नरकें जाय, त्यां वली अंतर्मुहूर्त पड़ी वली सम्यक्त्व पामे तो जिननामकर्मनी सत्ता होय; अने जो नरके गया पढ़ी पतितपरिणामे रहे तो अंतर्मुहूर्त पनी जिननामकर्म उवेले तेथी जिननामकर्मनी सत्ता टली जाय. एटले एक ध्रुवसत्ता अने बीजुंअध्रुवसत्तारूप, एम पांचमुं अने बहुं ए बे हार साथें कह्यां ॥ १५॥
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