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________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ६५३ गिरि के पर्वतनी राय सरखो अनंतानुबंधी क्रोध, तेम अनंतानुबंधीया मानादिक पण लेवा. तेना उदयें अति संक्लिष्ट मलिन परिणामी जीव, पापप्रकृतिनो अति कट्रक चोगणी रस बांधे तो पण बैंतालीश पुण्यप्रकृतिनो बे गणी रस बांधे. जे लणी शुनप्रकृतिनो एकगणी रस बंधाय नहीं, माटें बेगणी कहो. अने उदयमां एकगणी पण होय. ते वारें अति संक्लेशें करी बेगणी रस, तेने एकठाणी करी उदीरे वेदे. तथा महि के तलावमध्ये पाणी सूकाणा पली माटीनी राय ते सरीखो अप्रत्याखानी क्रोध जाणवो. तेमज अप्रत्याख्यानीथा मानादिक त्रण पण सेवा. तेना उदयें संक्वेशपरिणामें शुज तथा अशुन प्रकृतिनो रस त्रिगेणी बंधाय; पण एटलं विशेष जे,चढते परिणामें शुन प्रकृतिनो रस बंधाय,अने पमते परिणामे अशुज प्रकृतिनो रस बंधाय. एक स्थानकमध्ये पण चढतां पमतां रसस्थानक असंख्यातां असंख्यातां ले. तथा रय के० रज एटले धूलमांहेली रेखा ते सरखो प्रत्याख्यानी क्रोध जाणवो. तेमज प्रत्याख्यानीया मानादिक त्रण पण लेवा. तेना उदयथी पापप्रकृतिनो बेगणी अने पुण्यप्रकृतिनो चोगणी रस बंधाय, तेमध्ये मंद रस बांधे. तथा जलरेहासरिस के पाणीनी रेखा सरखो संज्वलन क्रोध तेमज मानादिक पण लेवा. एना उदय पुण्यप्रकृतिनो तीव्र चोगणी रस बंधाय, अने पापप्रकृतिनो एकगणी रस बंधाय. ए रीतें अशुन प्रकृतिनुं अनंतानुबंधीये, अप्रत्याख्यानीए, प्रत्याख्यानीए तथा संज्वलने, कसाएहिं के कषायें करी अनुक्रमें चोगणी, त्रिगणी, बेगणी, एकगणी रस बंध थाय. तथा शुन प्रकृतिनो संज्वलने, प्रत्याख्यानीए, अप्रत्याख्योनीए, अनंतानुबंधीए करी चोगणीश्रादिक अनुक्रमें रस बंधाय, ते कहे . ॥ इति समुच्चयार्थः॥ ६३ ॥ चन गणाई असुरो, सुदन्नदा विग्ध देस आवरणा ॥ .. पुम संजलणिग छ ति चज, गण रसा सेस उगमाई ॥ ६ ॥ अर्थ-चनमाणाईश्रहो के गिरिरेखा समान अनंतानुबंधीश्रा कषायें करीने अशुज प्रकृतिनो रस चोठगणी बंधाय, पृथवीरेखा समान अप्रत्याख्यानीया कषायें करी अशुन प्रकृतिनो रस, त्रिवाणी बंधाय, रजरेखा समान प्रत्याख्यानीया कषायें करी अशुन प्रकृतिनो रस बेगणी बंधाय, जलरेखा समान संज्वलन कषायें करीने अशुन प्रकृतिनो रस एक गणी बंधाय, अने सुहन्नहा के शुज प्रकृतिनो रस, एथी अन्यथा कहेवो, एटले जलरेखा अने रजरेखा समान संज्वलन तथा प्रत्याख्यानीया कषायें करीने शुज प्रकृतिनो रस चोगणी बंधाय, पृथवीरेखा समान अप्रत्याख्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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