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________________ ६५४ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ नीश्रा कषायें करीने शुज प्रकृतिनो रस त्रिगणी बंधाय, गिरिराय समान अनंतानुबंधीया कषायें करीने शुज प्रकृतिनो रस बेगणी बंधाय. अने एकगणी रस तो शुन प्रकृतिनो नज बंधाय. हवे जे प्रकृतिनो जेटले प्रकारें रस बंधाय, ते कहे. विग्घ के पांच अंतराय, देसथावरणा के केवल छिक वर्जीने शेष चार झाना वरणीय तथा त्रण दर्शनावरणीय, एवं सात, पुम के पुरुषवेद, संजलण के० चार संज्व-- लना कषाय, एवं सत्तर प्रकृतिनो रस ग के० एकगणी, मु के बेगणी, ति के त्रिगणी, चग्गणरसा के चार गणी रस पण बंधाय. एटले ए सत्तर प्रकृतिनो रस, चार प्रकारे बंधाय. तेमध्यें एनो एकगणी रस तो नवमा गुणापाना संख्याता जाग गया पडी बंधाय, अने तेथी नीचेना गुणगाणे बेगणीश्रा, त्रिगणीश्रा, अने चोगणीश्रा रस बंधाय. अने ए सत्तर प्रकृतिथी सेसफुगमाई के शेष रही जे एकसो त्रण प्रकृति, तेनो बेठाणीयादिक रस बंधाय पण एकाणी रस न बंधाय. जे जणी तेमध्ये अशुज पाप प्रकृति पांश , ते तो नवमे गुणगणे बंधातीज नथी, तेथी तेनो एकाणी रस न होय. एमांथी जो पण केवलज्ञानावरणीय तथा केवलदर्शनावरणीय, ए बे प्रकृतिनो नवमे श्रने दशमे गुणगणे बंध , तथापि ते बे प्रकृति, सर्वघातिनी बे; तेनो रस, एकाणी न होय. अने बेंतालीश पुण्य प्रकृतिनो रस तो एकगणी नज बंधाय, जे जणी असंख्याता लोकाकाश प्रदेश प्रमाण संक्लेशनां स्थानक डे ते थकी कांइएक जाजेरां विशकिनां स्थानक बे. ए बे यद्यपि तुल्य तथापि तेमांहे विशुकि स्थानक कांक अधिक जे जे माटें उपशमश्रेणी विशुकि स्थानकें चडे जे अने पळतो पण तेटलेज संक्वेश स्थानकें पाडो उतरे डे एटले तुल्य . चमवानां जेटलां विशुकि स्थानक तेटलांज उतरतां संक्लेशस्थानक होय, जेम प्रासाद उपर चडवानां जेटलां पगश्रीयां तेटलांज उतरवानां पण पगथीयां होय, पण कपकश्रेणीना जे विशुछिना श्रध्यवसाय स्थानकें चडे बे, ते पाडगे उतरतो नथी. तेथी संक्शस्थानक तेटलां बां होय, अने विशुझिस्थानक अधिक बे, तिहां अतिविशुछिस्थानकें शुक्न प्रकृतिनो चोगणी रस बंधाय अने अत्यंत संक्लेशस्थानकें शुज प्रकृतिनो बंध न होय अने नरकप्रायोग्य बांधतां अत्यंत संक्वेशे वैक्रिय, तैजस अने कार्मणादिक जे शुज प्रकृति बंधाय डे ते पण तथा वनावें बेठाणीया रसें बंधाय, पण एकगणीधा रसें न बंधाय, तथा प्रर्व संज्वलन कषायोदयें करी पापप्रकृतिनो एकगणी रस बंधाय. एम कडं ते पण स्थूलनये कयु. जे जणी संज्वलन उदये पाप प्रकृतिनो बेगणी पण रसबंध होय. ए रीतें स्थानक, प्रत्यय, प्ररूपणा कही. ॥ ६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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