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________________ ३८ संग्रहणीसूत्र. दिशिना इंद्र बे. तेहने एकेकाने पण के० पांच पांच अग्गमहिसी के छात्रमहिषी बे. तथा नागाइ के० नागकुमार श्रदे देईने बाकी जे जुवनपतिना नव निकाय बे, तेहना धरणेंद्र तथा भूतानेंद्र यादे देशने ढारे इंद्रने प्रत्येके के ब 0 महिषी बे. तथा वंतर के० व्यंतर देवताना सोल निकायना काल महाकालादिक बत्री इंद्र बे. तेहने प्रत्येके चल चल के० चार चार ग्रमहिषी बे. अने जोईस के० ज्योतबिना इंद्र चंद्रमा तथा सूर्यने प्रत्येके च च के० चार चार अग्रमहिषी बे. तथा कपडुगिंदा के० सौधर्म छाने ईशान ए वे कल्पना बे इंद्रने प्रत्येके श्रय के० महिषी. पहेला तथा बीजा देवलोकी उपरला देवलोकने विषे देवीनं उपजतुं नथी. तेथी त्यां परिगृहिता देवी पण नथी; किंतु ते देवलोकना इंद्र तथा देवोने जेवारे यथायोग्य विषय सेववानी वांडा याय तेवारे तेने सौधर्म ने ईशान देवलोकन परिगृहीता देवी यथायोग्यपणे उपभोगने श्रर्थे याय. तेमाटे त्यां महिषी संजवे नही ॥ १३ ॥ पूर्वे वैमानिक देवोन आयुस्थिति समुच्चयर्थी कही देखाडी. हवे प्रतरे प्रतरे जघन्य उत्कृष्टी स्थिति कहेवाने अर्थे प्रथम ए देवलोकोनी प्रतर संख्या गाथावके कहे बे. डुसुतेरस डुसु बारस ॥ बप्पण चन चन डुगे डुगेय च गेविज गुत्तरे दस || बिसठ पयरा जवरिखोए ॥ १४ ॥ ॥ व्याख्या - प्रतर शब्दे जेम घरने उपराजपरी माल होय, तेम देवलोकमां उपरा उपरे प्रतर होय . तेमां डुसुतेरस के० सौधर्म, ईशान ए बे देवलोक मल्या तेर प्रतर वलयाकारबे; तेमां पूर्व महाविदेह ने पश्चिममहा विदेह. वचमां अर्द्ध वलयाकार खंमथकी श्रद्धा खंग करीए. एक दक्षिणदिशि खंड, बीजो उत्तरदिशि खंम. तेमां दक्षिणदिशि खंड सौधर्म इंद्रनो, एटले ते दिशिना अर्द्ध वलयखंगना प्रतर सौधर्म इंद्रना बे; अने उत्तर दिशिना श्रर्द्ध वलयखंगना प्रतर ईशानेंद्रना जाणवा. जो अर्को खंग करी प्रतर न कहीए तो तेर प्रतर सौधर्मेंद्रना, अने तेर ईशानेंद्रना मेलवतां नवीश प्रतर थई जाय बे. ते याशंका निवारवाने ा ार्ड खंड करीने प्रतरनी गणना करीए. एम बीजे पण वलयाकार देवलोक युगले एहज व्यवस्था करवी. तेमज डुसुबारस के० सनकुमार ने माहेंद्रे पण मल्या वलयाकार बार प्रतर बे. श्रहीयां पण श्रद्धा करी दक्षिण दिशि सनत्कुमारेंद्रना ने उत्तरदिशि माहेंद्रना प्रतर करवा. ब्रह्मदेवलोके a to a प्रतर बे. अने लांतके पण के० पांच प्रत्तर, तथा शुकदेवलोके च के० चार प्रतर बे, सहस्रारे च के० चार प्रतर, तथा चानत अने प्राणत ए डुगे के० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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