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________________ संग्रहणीसूत्र बे देवलोके मलीने चउ के चार प्रतर, तथा श्रारण्य श्रने अचुत ए उगेय के बे देवलोके मलीने चन के चार प्रतर. एवं बावन प्रतरथया. तथा गेवि के नव ग्रैवेयके एकेको प्रतर गणतां नव प्रतर थाय. थने अणुत्तरे कहेतां पांचे अनुत्तरविमाने एकप्रतर, एवं मलीने दस के० दश प्रतर, ते पूर्वोक्त बावन साथे मेलवतां बिसहिपयरा के० बासठ प्रतर ते उवरिलोए के उपरला ऊर्ध्वलोकनेविषे .॥ १४ ॥ ॥ दवे प्रतरे प्रतरे जूडं जूठं उत्कृष्ट तथा जघन्यायु जाणवाने अर्थे प्रथम सौधर्म देवलोके उपाय कहे जे.॥ सोहम्मुक्कोस हिश निय पयर विदत्त श्च संगुणि ॥ पयरुक्कोस हि ॥ सबब जहन्नोपलियं ॥ १५॥ अर्थ- सोहम्मुक्कोसहि के सौधर्म देवलोके जे उत्कृष्टिस्थिति बे सागरोपमनी बे, तेने नियपयरसं के पोताना तेर प्रतर साथे विहत्त के वेहेंचीए, पड़ी श्वसंगुणि के अहींयां पांचमा अथवा सातमा जे प्रतरतुं श्रायु काढवाने श्वयं होय, ते प्रतः रनी साथे गुणीए, तेवारे ते पयर के प्रतरनी उकोसहिश के उत्कृष्टि स्थिति पामीए, ते आवी रीते जे, सौधर्मदेवलोकनातेरमा प्रतरे उत्कृष्टी स्थिति बे सागरोपमनी जे, ते एकेका सागरोपमना तेर तेर जाग करीएतेवारेबे सागरोपमना तेरीश्राबवीस नाग थाय,तेने तेरे जागे वेहेंचतां एक सागरोपमना तेरीया बे नागनुं श्रायु पहेले प्रतरे होय. एमज बोजा प्रतरतुं श्रायु काढq होय, तेवारे तेने ते साथे गुणीए तो तेरीया चार जाग यावे, तेम त्रीजे उजाग, चोथे श्राप जाग, पांचमे दशजाग, बछे बार नाग, सातमे चउद जाग एटले एक सागरोपमना तेर नाग अने उपर तेरी एक नाग, बाग्मे एक सागरोपम ने त्रण नाग, नवमे एक सागरोपम ने पांच नाग, दशमे एक सागरोपम ने सात नाग, अग्यारमे एक सागरोपम ने नव नाग, बारमे एक सागरोपम ने अग्यार नाग, अने तेरमे प्रतरे बे सागरोपम पूरूं श्रायु होय. एवीज रीते ईशान देवलोके पण प्रत्येक प्रतरने विषे श्रायुष्य काढवानो उपाय करवो.मात्र एटबुं विशेष जे ए देवलोकना पहेले प्रतरे सागरोपमना तेरीया बे नाग काफेरा कहेवा. एम प्रत्येक प्रतरे काफेरा कहेतां जवू; तेवारे तेरमे प्रतरे वे सागरोपम साधिक आयुस्थिति थाय. अने सबछजहन्नोपलियं के सर्वत्र एटले सौधर्म देवलोकना तेरें प्रतरनेविषे जघन्य एक पख्योपमनीज श्रायुस्थिति जाणवी, अने ईशान देवलोकना प्रत्येक प्रतरनेविषे जघन्यथी एक पक्ष्योपम कारी श्रायुस्थिति जाणवी. ए रीते सौधर्म तथा ईशान देवलोकना तेर प्रतर, तेनेविषे प्रत्येके जघन्योत्कृष्ट श्रायु समजवानोउपाय कह्यो. ॥१५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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