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कर्म विपाकनामे कर्मग्रंथ. १
बंधनो जे समुदाय तेने प्रकृतिबंध कहियें; अध्यवसाय विशेषें करी ग्रहण करेला जे कर्मना दलिक, तेनी स्थिति एटले जे कालनो नियम, तेने स्थितिबंध कहियें; कर्मना पुरुलोना शुजाऽशुन अथवा घाती अघाती जे रस तेने अनुजागबंध अथवा रसबंध कदीयें; अने स्थिति तथा रसनी अपेक्षा विना कर्मपुङ्गलोना दलिकोनुं जे ग्रहण कर, तेने प्रदेशबंध कहीयें. उक्तंच "विश्बंध दलस्स विई, पएसबंधो पएस गहणं जं; ताणरसो अणुजागो, तस्समुदार्ज पगबंधो. ” बीजे ठेकाणे पण कयुं बेः- “ प्रकृतिः समुदायः स्यात्, स्थितिः कालावधारणं; अनुजागो रसः प्रोक्तः प्रदेशो दलसंचयः " ए उक्त चार प्रकार ते मोगस्स दिहंता के० मोदकना दृष्टांतेकरी समजी लेवा, ते श्र प्रमाणेजेम वातरोगने हरण करनारा द्रव्यथी बनावेलो जे मोदक होय बे, तेनी वातरोगनो नाश करवानी प्रकृति अथवा स्वभाव होय बे; पित्तरोगापहारक द्रव्यथी बनेला मोGrah पित्तनो उपशम थाय बे; यने कफरोगनाशक द्रव्यथी उत्पन्न थरला मोदकथी कफनो ध्वंस थाय बे; एवो जे स्वभाव तेने प्रकृति कहियें; ते मोदक कोइ एक दिवस, कोइ बे दिवस, एम यावत् कोइ एक माससुधी बगडी न जतां जेमनो तेमज रही शके बे; पढी विनाश पामे बे, ए तेनो स्थितिकाल कहियें; ते मोदकने विषे स्निग्ध तथा मधुरादिक रस एक गुणो, द्विगुणों तथा त्रिगुणो इत्यादिक जे होय बे, तेने रसबंध कहीयें; अने ते मोदकमांना कोइमां एक प्रसृति एटले एक पली, कोईमां ने पली तथा कोइमां त्रण पली एम यावत् कणिकनुं प्रमाण होय तेने प्रदेशबंध कहीयें; एवीज रीते कर्मने विषे पण कोइ कर्मनी प्रकृति ज्ञानने वा दन करनारी होय, कोइ कर्मनो स्वभाव दर्शनने यावरण करवाना होय, कोइ क
प्रकृति नंदने देनारी होय ने कोइ कर्मनो खजाव सम्यक् दर्शनादिकनो विघात करवानो होय बे, तेने कर्मप्रकृति कहीयें. तेज कर्म कोइ त्रीश कोटाकोटी सागरोपमसुधी, अने कोइ सित्तेर कोटाकोटी सागरोपमसुधी इत्यादि टकी शके बे, ने की स्थिति कहीयें; ते कर्मनेविषे कोईमां एक वाणीयुं, कोईमां बे वाणीयुं, ने कोकमां त्र ठाणीयुं रस होय बे, ते अनुजागबंध कहियें, अने तेज कर्मने विषे कोईमां प्रदेश अल्प होय, कोईमां बहु, कोईमां बहुतर तथा कोईमां बहुतमरूप इत्यादि प्रदेशोनो संचय होय बे, ते प्रदेशबंध कहेवाय बे. मूलपगइ अ के० ए कर्मनी मूल प्रकृति सामान्यरूप श्राव बे, घने उत्तर पगई अडवन्नसय ज्ञेयं के० उत्तर प्रकृति विशेषरूप एकशो ने अट्ठावन बे. एज एकसो ने श्रावन कर्मप्रकृति कदेवाय बे.
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