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________________ कर्मविपाकनामे कर्मग्रंथ.१ नए त्वया"॥३॥ बौछ पण आम कहे डे के, "श्तएकनवतौकल्पे शत्यामे पुरुषो इतः, तेन कर्म विपाकेन पादेविकोस्मिनिदवः” एवी रीते कर्मना अस्तित्वनो यद्यपि सर्व अंगी. कार करे , तथापि ते अमूर्तिमंत माने बे, पण तेम नथी. कर्म पुगल वरूपी बे; तेमाटे मूर्तिवंत बे, अमूर्त नथी, तेम बतां जो कर्मने श्राकाशादिवत् श्रमूर्ति मानशं; तो जेम श्रमूर्त आकाशथी कांश श्रात्माने अनुग्रह उपघात नथी, तेम कर्मना योगे पण श्रात्माने अनुग्रह तथा उपघातनो संजव थशे नही. यतः “अन्नेउप्रमुत्तंचिय, कम्ममंतिवासणारूवं; तंतुनजद्यश्तत्तो, उवाघयाणुग्गहानावा. नागासंउवघायं, श्रणुग्गरं वाविकुणश्सत्ताणं.” हवे ते कर्म प्रवाहे करी अनादि . यतः “ अणाश्यं तं पवाहेण" इति वचनात्, जो प्रवाहनी अपेक्षाथी पण कर्मने सादि मानियें, तो जीवोने पूर्वे कर्मर हितपणानो संजव थशे. अने पालथी कर्म कस्याथी जीवने कमनो संयोग उत्पन्न थाय बे एम मानवं जोश. एम अंगीकार कस्याथी मुक्त जीवोने पण कर्मनो संयोग संचव थशे, केमके ते तो कर्मरहित बे. तेथी मुक्त जीवोने अमुक्तता थशे. एम मानतुं तो इष्ट नथी. माटे जीवने कर्मनी साथे अनादि कालनो संयोग डे एम मानतुं योग्य बे, मात्र कर्मज अनादि जे एम नथी. आशंका-जीवनी साथे कर्मनो अनादि संयोग बतां तेनो वियोग केम संनवे ? उत्तर- अनादि संयोग बतां पण वियोग दीगमां थावे जे. जे कांचन श्रने उपल एटले पथरानो अनादि संयोग , तोपण तथाविध सामग्रीना सनावथी एटले धमनादिकनी सहायतावडे कीटीनो वियोग दीगमां आवे बे, तेमज जीवने पण सम्यक् ज्ञान, सम्यकदर्शन तथा चारित्रना ध्यानरूप अग्निए करी अनादि कर्ममलनीसाथे वियोगनी सिद्धि थाय बे, ए विषे नाष्यसुधांनो निधिर्नगवान पण श्राम कहे डे के, “जहश्य कंचणोवल संजोगोणा संतश् गऊवि; वुबिजाश्सोवायं, तहजोगोजीवकम्माणं ॥१॥ इति प्रथम गाथार्थ ॥ ॥ हवे बीजी गाथाए कर्मना केटला नेद ? ते कहे जे. ॥ पय विश रस पएसा ॥ तं चनदा मोअगस्स दिहता ॥ मूल पग उत्तर ॥ पगई अडवन्न सयनेयं ॥ २ ॥ अर्थ- तंचउहा के ते कर्मना चार प्रकार थाय जे; ते आ प्रमाणे- पयहिश रस पएसा के प्रकृति, स्थिति, रस तथा प्रदेश, जेम प्रासाद प्रमुखना श्राधारजूत स्तंज होय जे; तेम कर्मना ए चार स्तंन बे. तेथी प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, रसबंध तथा प्रदेशबंध कह्या डे. तेमां स्थिति, तथा रस जे अनुनाग, तथा प्रदेश ए त्रण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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