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सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६
थाकती होय, त्यां लगें सार्थेज होय, अने बेहली आवलियें तो मात्र उदयज होय, पण उदीरणा न होय.
तथा त्रण वेदमांहेली जे वेदें श्रेणी पडिवो तिहां अंतर करण कीधे थके ते वेदन प्रथम स्थिति घ्यावलिका थाकतों लगें उदय तथा उदीरणा सार्थेज होय श्रने बेहली श्रावलियें तो उदीरणा न होय, मात्र उदयज होय.
तथा चारे छानो पोतपोताना जवनी बेहली यावलिकायें उदय होय, पण उदीरणा न होय, अने मनुष्यायुनो प्रमत्त गुणठाणा लगेज उदय तथा उदीरणा दोय, गले गुणठाणे केवल उदयज होय, पण उदीरणा न होय. ॥ इत्यर्थः ॥ ७० ॥
तथा मनुष्यगति, पंचेंद्रियजाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुजग, श्रदेय, यशः कीर्त्ति
तीर्थंकरनाम, ए नव नामकर्मनी प्रकृति तथा उच्चैर्गोत्र, ए दश प्रकृतिनां सयोगी केवली गुणठाणा लगें उदय तथा उदीरणा सार्थेज समकालें प्रवर्त्ते तेवार पछी - योगी गुणठाणे ए दश प्रकृतिनो उदय होय पण उदीरणा न होय. एम ए एकता - लीश प्रकृतिनां उदय ने उदीरणानुं विशेष देखाड्यं श्रने शेष पंच्चाशी प्रकृतिनां उदय तथा उदीरणा समकालें प्रवर्त्ते ने समकालें निवर्त्ते ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ७१ ॥ ॥ अथ कस्मिन गुणस्थानके काः प्रकृतिर्वनंतीत्याह ॥ ॥ हवे कया गुणठाणे कइ प्रकृति बांधे बे तिचयरा दारग विर, दिया वे सब पयडीजे ॥ मित्तवेगो सा, साणो गुणवीस सेसा ॥ ७२ ॥
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एवो बंध विशेष सर्व गुणठाणे कहे . ॥
अर्थ- बंध योग्य एकसो वीश प्रकृति मध्येथी तियराहारग के तीर्थंकरनाम आहारकद्विक, ए त्रण प्रकृति विरहियान के० रहित करीने सवय - मी के बाकी एक्सो सत्तर प्रकृति सर्व उपार्जे, एटले बांधे, ते कोण जीव क्यां बांधे ? तो वे गो के० मिथ्यात्वनो वेदक एवो मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्व ruary rarat बांधे ने जिननाम सम्यक्त्व प्रत्ययि बे तथा श्राहारकद्विक संयम प्रत्ययि बे तेथी मिथ्यात्वें सम्यक्त्व तथा संयम बेहुने अजावें एत्रण प्रकृति न बांधे; तथा सासापोगुणवीससे साठ के० सास्वादन गुणठाणे वर्त्ततो जीव १ जिननाम, ३ श्राहारकद्विक, ४ नपुंसकवेद, ५ नरकगति, ६ नरकानुपूर्वी, ७ नरकायु, संस्थान, बेवहुं संघयण, १० आतप, ११ स्थावर, १२ सूक्ष्म, १३ साधारण, १४ पर्याप्त, १५ एकेंद्रिय, १६ बेंद्रिय, १७ तेंद्रिय, १० चौरिंद्रियजाति, १० मिथ्यात्वमोहनीय, ए जंगणी प्रकृति विना शेष एकसो ने एक प्रकृति बांधे, जेजणी नपुं
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