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सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६
३ सकादिक शोल प्रकृतिनो बंध, मिथ्यात्व प्रत्ययिर्ड , ते श्रहींचा साखादने न बंधाय. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ७ ॥
गयाल सेस मीसो, अविरय सम्मो तिाल परिसेसा॥
तेवन्न देस विर, विरचे सगवन्न सेसा ॥ ३ ॥ अर्थ-जंगणीश प्रकृति पूर्वं कही ते तथा तिर्यंचत्रिक, श्रीणझीत्रिक, दो ग्यत्रिक, अनंतानुबंधिचतुष्क, मध्यसंस्थान चार, मध्यसंघयण चार, नीचैर्गोत्र, उद्योत, अशुनविहायोगति, स्त्रीवेद, मनुष्यायु अने देवायु, ए बायाल के बेंतालीश प्रकृति वर्जीने सेसमीसो के शेष चमोत्तेर प्रकृति मिश्रगुणगणे वर्ततो जीव बांधे अने अविरयसम्मो के अविरति सम्यक्दृष्टि गुणगणे पूर्वोक्त बैंतालीश मध्येथी तीर्थकरनाम, मनुष्यायु, अने देवायु, ए त्रण बांधे माटे तिालपरिसेसा के तालीश प्रकृति वर्जीने शेष सत्त्योतेर प्रकृति बांधे तथा देस विरठ के देशविरति गुणगणे वर्त्ततो जीव, वज्रषजनाराच संघयण, मनुष्यत्रिक, अप्रत्याख्यानीश्रा चार कषाय, औदारिकड़िक, एवं दश प्रकृति पूर्वोक्त तालीशमां नेलीये, तेवारें तेवन्न के त्रेपन प्रकृति न बांधे, ते वर्जीने शेष शमशठ प्रकृति बांधे. तथा विर के सर्वविरति प्रमत्त साधु, बछे गुणगणे पूर्वोक्त त्रेपन्ननी साथे प्रत्याख्यानावरण कषाय चार नेलतां सगवन्न के सत्तावन्न प्रकृति न बांधे, ते वर्जीने सेसा के शेष त्रेशठ प्रकृति बांधे. ॥ ३ ॥
श्गुसहि मप्पमत्तो, बंधश् देवानअस्स श्अरोवि ॥
अमावस्म मपुवो, उप्पन्नं वावि ब्बीसं ॥४॥ अर्थ-तथा ते पूर्वोक्त त्रेशव प्रकृतिमध्ये थी शोक, अरति, अथिर, अशुल, अयश अने अशाता, ए प्रकृति काढीयें अने श्राहारकटिक नेलीयें, तेवारेंगसहि के उंगणशाठ प्रकृति अपमत्तो के० अप्रमत्त गुणगणे बंधश्के बांधे, अथवा देवाजअस्सश्रोवि केव देवायु पण प्रमतें बांधवा मांडे, ते बांधतो थकोज प्रमत्त थकी इतर अप्रमत्तें श्रावे, तिहां ते बंध पूरो करे, पण अप्रमत्त थको देवायु बांधवा न मांडे तेमाटे देवायु विना श्रावस के अठावन्न प्रकृति बांधे तथा मपुत्रो के अपूर्वकरण गुणगणाना सात जाग कल्पीयें. तिहां पहेले नागे तो तेहीज पूर्वोक्त अहावन बांधे, अने बीजे, त्रीजे, चोथे, पांचमे, अने छे, ए पांच नागें निवाहिक न बांधे. शेष बप्पन्नं के पन्न प्रकृति बांधे, वावि के अथवा बेहले नागें देवछिक, पंचेंजियजाति, शुजखगति, त्रसादि नव, औदारिक विना चार शरीर, बे उपांग, समचतुरस्त्र, निर्माण, तीर्थकर,
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