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________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. 4. ५०३ प्रकाशवान् परने दुस्सहनीय होय. ते माटें ए पण पुल विपाकिनी प्रकृति जावी. एवं बत्री प्रकृति, पुग्गल विवागि के० पुल विपाकिनी कही. एम अनुक्रमें चार प्रकृति क्षेत्र विपाकिनी, होत्तेर जीवविपाकिनी, चार जवविपाकिनी ने बत्रीश पुल विपाकिनी, ए सर्व मली एकसो ने बावीश प्रकृति उदयनी अपेक्षायें होय, जे जणी विपाकिनी कहेतां रसोदय कहीयें. एम चार विपाक द्वार कां. हवे बंधो के चार बंधनां द्वार कहेते. त्यां जे स्थिति, रस ने प्रदेशवंधनो समुदाय ते पयश के० प्रकृतिबंध जाणवो, तथा योग प्रत्ययें गृह्यां एवां जे कर्म पुल, त्यां अध्यवसाय विशेष कर्मपणे रहेवानी स्थितिनुं मान ते बीजो हिइ के० स्थिति - बंध जाणवो, तथा शुभाशुभ अध्यवसाय विशेष करी जे मीठो रस ते अनुकूल प वेदीयें, ने कमवो रस ते प्रतिकूलपणे वेदीयें. तेमध्यें पण वली एकठाणी, बेठापी, त्रिवाणी, चउठाणी तथा घाति, अघाति, एवा विपाकरसनुं बांध, ते जो रस के० रसबंध जावो. ने जे योगनी उत्कटतायें घणा दल मले अने योगनी मंदतायें थोमां दल मले, एम योगनी तारतम्यें करी कर्मदलनुं तारतम्यप होय; ते चोथो पएसत्ति के० प्रदेशबंध जाणवो. इति के० एम विवक्षायें चार बंध ते एक बांधतां चारे बंधाय. यहींयां लागवाना दृष्टांत पूर्वे को बे ते जाववो. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ २१ ॥ मध्यें प्रथम प्रकृतिबंध विचारे बे. तिहां एक, बे, त्रण इत्यादिक संख्यायें प्रकृतिनुं बांध, तेने प्रकृतिबंधस्थानक कहीयें. ते बंधस्थानक मूल प्रकृतिखाश्री तथा उत्तर प्रकृतियाश्री, एम वे नेदें होय. ते मध्ये पण अल्पसंख्याथी घणी संख्याने बंधस्थानकें जाय, ते प्रथम नूयस्कार बंध जाणवो, अने जे घणी संख्याथी थोमी संख्याने बंधस्थानके यावे, ते बीजो अल्पतर बंध जाणवो. एकज संख्याने स्थानकें रदेतां त्री जो अवस्थितबधं जावो, अने अधबंक थइने फरी प्रथम एकादि प्रकृति बांधे, तिहां चोथो वक्तव्य बंध जाणवो. एम प्रसंगपणे चार बंध कहेवाय. तिहां प्रयम मूलप्रकृतिना बंध स्थानक कहे थके नूयस्कारादिक सुखें कहे वाय. ते जणी ते मूलप्रकृतिनां बंधस्थानक, प्रथम कहीयें बैयें. तेमज उत्तरप्रकृतिने विषे पण बंधस्थानक कवापूर्वक यस्कारादिक चार बंध कदेशे. मूल पयडीए ड स त बेग बंधेसु तिन्नि नूगारा ॥ अप्पत्तरा ति चनरो, अवहिच्या नहु प्रवत्तवो ॥ २२ ॥ अर्थ- मूलपयमीम के० मूलप्रकृति ज्ञानावरणादिकथी मांडीने अंतरायकर्म ७५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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