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________________ कर्मविपाकनामे कर्मग्रंथ. १ शन् - अर्थ- सकल त्रिजुवन जनना मनने चमत्कार उपजावे, तथा परमाईत्य महा महीमाने विस्तारे एवी जे अष्ट महा प्रातिहार्य लक्षण सिरि के श्री एटले शोला. यथा ॥ अशोकवृदः सुरपुष्पवृष्टि, दिव्योध्वनिश्चा मरमासनंच; लामंडलं इंजिरातपत्रं, सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणां ॥ ए अष्ट महाप्रातिहार्य कहिएं, अथवा चोत्रीश अतिशय लक्षण शोजा तेणे करीबिराजमान एवा जे वीरजिणं के श्रीवर्धमान जिन एटले राग द्वेष तथा मोह प्रमुख वैरीउनो पराजय कस्याथी जिन कहेवाय . अने ते वैरीउरूप वीर एटले सुजट तेउने जीतवाथी वीर जिन ए नाम सार्थकज बे. एवा श्रीवर्डमान स्वामीने मने करी, प्रणिधान एटले विशुद्ध मनसहित जे वचन योग ते वडे स्तुति तथा काया ए करी प्रणामरूप वंदिय के वंदना करीने, अहीं वंदना शब्दे स्तवना अने प्रमाण ए बेहु श्रर्थ कहीएं बैएं. वंदिस्तुत्य निवादनयोरिति वचनात् एणे करी मंगलाचरणने अर्थे अनिष्ट देवनी स्तुति करीने झानावरणादि कर्मोना अनुजवने कम्म विवागं के कर्मविपाक कहिये. तेने समास के संदेपे करी अर्थात् वर्तमान पुषमकालना लोकोनी बुद्धि तथा श्रायु बल प्रमुख श्रति अल्प होवाथी घणा विस्तारवंत ग्रंथोमांप्रवृत्त थवामां विघ्न पडवाना जयथी तेवी कृति तेऊनी ऊपर उपकाररूप कदाच न थाय, माटे था टुंकामा वुद्धं के० कहीश. एथी प्रयोजन सूचव्यु, जपायोपेय एटले कारण कार्य लक्षण, साध्य साधन लक्षण, तथा गुरुपर्वक्रमलक्षण संबंध, अर्थात् सिम थाय ; सम्यकदृष्टीजीव अधिकारी बे; श्रने अनिधेय जे कर्मविपाक ते एमां विषय बे. हवे आगला बे पदे करी कर्म शब्दनो अर्थ करे बे. जे कराय ते कर्म कहीए. तेना पुजल अंजन चूर्णथी नरेला दाबलानी पेठे सर्व लोकाकाशमा निरंतर व्यापी रहेला बे; तेने दीर अने नीरनी पेरे तथा अग्नि अने लोहनी पेठे कर्मवर्गणा अव्य श्रने श्रात्मानो तादात्म्य संबंध जे कारणमाटे थई रहेलो बे; ते कारणमाटे ते कर्म कहेवाय . ए कर्म कोण करे ? तो के-जिएण के जीवे करी कीर के० कराय बे. ते जीव कोने कहीएं ? पांच इंजिय, त्रण योग ते त्रण बल, श्वासोश्वास तथा थायु ए दश प्राणसुधी जे यथायोग्य धारण करी शके तेने जीव कहिएं, ते जीव थावा लक्षणवालो -मिथ्यात्वादिके करी मलीनस्वरूप थको सातादि वेदनीयादि कर्मोनो कर्त्ता बे, तथा तेउना फल जे साता असाता तेनो जोक्ता, तथा एवा एवा कर्मविपाकनो उदय तेने अनुसारे करी नरकादिक गतिनेविषे संसर्ता, अने सम्यक्दर्शन ज्ञान तथा चारित्र लक्षण जे रत्नत्रय तेना श्रन्यासनी बाहुल्यताना वशेकरी अशेष कर्म मलपटलनो परिनिर्वाता, ए चारे लदणे बिराजमान ते जीव, सत्व, प्राणी तथा श्रात्मा इत्यादि पर्यायवडे उलखाय बे; उक्तंच ॥ यः क Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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