________________
२३६
लघुदेवसमासप्रकरण. खड्गी, मंजूर्षा, विय के० निश्चे षनपुरी, पुंडरिगिणी, चेव शब्द पदपूरणार्थ जे. ए श्राउ नगरीनां नाम कह्यां ॥ १५ए ॥ सुसीमा, कुंमला, चेव पदपूर्णार्थ बे. अपरावती, प्रनंकरा, अंकावती, पद्मावती, शुजा, रत्नसंचया, ॥ १६० ॥ अश्वपुरा, सिंहपुरा, महापुरा, चेव शब्द पदपूर्णार्थ , तहय के तथा प्रकारे विजयपुरा, अपिराजिता, अपरा, अशोका, तथा प्रकारे वीतशोका, ॥ १६१ ॥ चेव पदपूर्णार्थ . विजया, चेव पद पूर्णार्थ बे, वैजयंति, जयंती, अपराजिता, ते बोधवा के जाणवी. चक्रपुरी, खजपुरी, होश के होए श्रवध्या अने बत्रीसमी अयाध्या नगरी जाणवी. ए बत्रीस नगरी ते नदीनी दिशिए जे विजयतुं थर्ड जे, तेमांहे जाणवी. ॥ १६ ॥
॥ हवे विजयनी नदी कहे .॥ कुंडुनवा नगंगा ॥ सिंधू कवपम्हपमुहेसु ॥ अह
एसु विजए, सु सेसेसु रत्त रत्तवई ॥ १६३ ॥ अर्थ- निषध तथा नीलवंतने समी- जे कुंड के कुंड ते थकी उन्नव के नीकली जे गंगासिंधू के गंगा, सिंधु, नामे जे नदी ते कळपम्हपमुहेसु अपसु विजएसु के कछादिक श्राप विजयने विषे अने पद्मादिक श्राप विजयनेविषे गंगा अने सिंधू ए बे बे नदी जाणवी. अने सेसेसु के शेष बीजा जे वछादिक आठ विजय अने वप्रादिक श्राप विजय तेनेविषे रत्तरत्तवई के० रक्ता श्रने रक्तवती नामा बेबे नदी बे, ते सर्व नदी वैताढ्य प्रते नेदीने सीतोदा तथा सीता मांहे प्रवेश करे बे. ए कलादिक विजयथी दक्षिणावर्त गपीएं. ॥ १६३ ॥ ॥ हवे माहाविदेह क्षेत्रने विषेपूर्व तथा पश्चिम दिशिएं सीतोदा तथा सीतानदी
जगतीने नेदीने ज्यां समुषमाहे मले बे, त्यां जगती मांहेनी दिशि सीतोदा सीताने बन्ने बाजु चार वनमुख ले तेहy परिमाण कहे . ॥
अविव स्किमण जगई। सवेश्वणमुहचजकपिहुलत्तं ॥गु
णतीससय ज्वीसा ॥ नति गिरिश्रति एगकला ॥ १६४ ॥ अर्थ- अविव रिकऊणजगई के जगतीनी विवक्षाविना एटले जगतीरहित अने सवेश के वेदिका सहित जे वणमुहचजक के चार वनमुख . पिहुलत्तं के तेनुं पहोलपणुं गुणतीससयऽवीसा के उंगणत्रीशसें ने बावीस योजननुं नइंति के० सीतोदा तथा सीतानदीने समीपे जाणवू. अने पढी संकोचता संकोचता गिरि अंतिएगकला के निषध तथा नीलवंतने पासे वनमुखनो विस्तार एक कला जाणवो. हवे कुलगिरि थकी नदी दिशि जातां वांबीत स्थानकनेविषे वनमुखनो विस्तार जाणवानो विधि कहे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org