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________________ ४UG बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. ३ ॥ हवे लेश्यामार्गणा छारें बंधस्वामित्व कहे .॥ उदे अहारसयं, आदार उगूणमा लेस तिगे॥ तं तिबोणं मिजे, साणासु सवहिं उदो ॥२२॥ अर्थ-उहे के सामान्य श्राहारगणं के श्राहारहिकऊणो करतां श्रहारसयं के एकसो ने श्रढार प्रकृतिनो बंध आश्लेसतिगे के श्रादिनी त्रण लेश्याने विषे होय. तं के ते तिलोणं के तीर्थकरनामक, हीन करीयें, तेवारें मिले के मिथ्यात्व गुणाणे एकसो ने सत्तर प्रकृति बांधे, अने साणासुसबहिं के० सास्वादनादिक आगले सर्व गुणगणे उहो के कर्मस्तवनी पेरें सामान्य बंध जाणवो. ॥ श्त्यदरार्थः ॥ २॥ प्रथम कृल, नील अने कापोत, ए त्रण अशुज लेश्यावंत जीवने उचें एटले सामान्य जीवस्थानादिक नेद विवदा कस्या विना एकसो अढार प्रकृतिनो बंध जाणवो. जे जणी आहारकशरीर तथा आहारकअंगोपांग, ए बे प्रकृतिनो बंध श्रशुन लेश्या त्रण मध्ये न होय, ए बे प्रकृतिनो बंध तो अप्रमत्तगुणगणे होय, त्यां अशुल लेश्या न होय. अशुजलेश्या तो प्रमत्तगुणगणा सुधी होय, त्यां ए बे प्रकृतिनो बंध नथी. अहीं कोइएक देवता तथा नारकीने व्यलेश्या शरीरवर्णरूप माने जे जे नणी ते कहे जे के सातमी नरकपृथवीयें सम्यक्त्व प्राप्ति कही अने त्यां कृप्सलेश्या व्यथी कही अने श्री आवश्यकमध्ये शुजलेश्यायें सम्यक्त्व प्राप्ति कही डे तेथी एम जाणीयें बैये जे अव्यलेश्या शरीररूज जाणवी अने अध्यवसाय विशेष जावलेश्या ते जावपरावर्ते उ लेश्या होय, तेथी तेने शुजलेश्या नावपरावर्ते होय, एवं कहे ते अयुक्त जे. जे जणी जो शरीरवर्णरूप अव्यलेश्या होय तो श्री जगवती सूत्रमध्ये प्रथम शतकें “नेरश्याएंजते सवे ससमवमा गोयमानोश्ण समहे नेरश्याणंनंतेसवे समलेस्सा. " ए बे सूत्र जिन्न करी कहेत नहीं तेथी अहींयां लेश्या ते काषायिक दल संबंधजन्य जीवनो अशुङ खनाव जाणवो अने जावपरावर्तिये उ लेश्या कही, तेनो ए अर्थ डे के जेम वैमुर्यमणि राते सूत्रं परोयो को रक्तरूप न थाय पण राती जेवी बाया देखाय, तेम कृमलेश्यादिकाव्य तेजोलेश्यादिक जव्यसंबंधे करी तेजोलेश्यापणे परिणमे नही पण आकार नावमात्र तथा प्रतिबिंबरूपें तेजोलेश्या सरखी देखाय, तेथी सम्यक्त्व प्राप्ति सातमी नरकें विशुद्ध नहीं पण परमार्थे ते कृष्णलेश्याज जाणवी. एम अनव्यने शुक्ललेश्या पण तेमज जाणवी. तेणे अव्यथी जाणवी, तेम अशुन लेश्यायें, मिथ्यात्वं, जिननाम बंधाय नहीं तेथी एकसो ने सत्तर प्रकृतिनो बंध मिथ्यात्वे जाणवो अने साखादनादिक पांच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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