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बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. ३
परमुवसमिवहंता, प्रान न बंधंति तेण प्रजयगुणे ॥ देवमा दीणो, देसाइसु पु सुराजविणा ॥ २१ ॥
अर्थ - परम के० एलुं विशेष के जे जवसमि के० श्रपशमिक सम्यक्त्वें वहंता to वर्त्तता जीव, खाज के० परजवायु नबंधंति के० न बांधे, तेण के० तेजणी श्रजयगुणे के० श्रविरतिसम्यकदृष्टि गुणठाणे देवमणु आउदीणो के० देवायु, अने मनुष्या, ए वे प्रकृति हीन करवी, अने देसाइस के० देशविरति प्रमत्त अप्रमत्त गुणापाने विषे पुण के० वली सुरार्जविषा के० एकज देवायु विना बंध कदेवो ॥ इत्यरार्थः ॥ २१ ॥
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पशमिक सम्यकदृष्टि जीव, एक परजवायुबंध, बीजो मरण, त्रीजो अनंतानुबंधीया कषायनो बंध तथा उदय, ए चार वानां न करे, सास्वादने करे, ते श्रायुबंध हेतुनूत अध्यवसाना नावे खोपशमसम्यक्त्वें सुरायु ने मनुष्यायु, एबे न बांधे, ने नरकायु तथा तिर्यंचायु, ए वे श्रायु तो पूर्वेज निषेध्यां बे. बाकी ए बेनो यहां संव होय ते पण निषेध्यो बे तेवारें उधें ज्ञान पांच, दर्शन ब, वेदनीय बे, मोहनीय जंगणीश, नामनी अंगणचालीश, गोत्रनी एक छाने अंतरायनी पांच, ए सत्योतेर प्रकृतिनो बंध जाणवो. तेमध्यें चारित्र प्रत्ययि श्राहारक द्विक, अविरतिसम्यकदृष्टिगुणठाणे न बंधाय, तेथी शेष पंचोतेर प्रकृति बांधे, तेमांथी बीजा प्रत्याख्यानावरण कषाय चार, चौदारिकद्विक, प्रथमसंघयण, मनुष्य द्विक, ए नव प्रकृतिनो बंध विच्छेद के पांचमे गुणगाणे बारा प्रकृतिनो बंध. अहींयां सुरायुबंध उघथी टले, तेथी यहां लीधो नहीं, तथा प्रमत्तगुणठाणे त्रीजा प्रत्याख्यानावरण कषाय चार, न बांधे, तेथी बारात प्रकृतिनो बंध श्रप्रमत्तें जाणवो, अने प्रमतें पूर्वली परें douशावनो तथा ठावननो बंध, निवृत्तिगुणठाणे अठावन्न, बप्पन ने बवीश; निवृत्ति गुणठाणे बावीश, एकवीश, वीश, अंगणीश अने अढार; सूक्ष्म संपरायें सत्तर
उपशांतमोहे एक, शातावेदनीयनो बंध जाणवो. एम व गुणठाणे श्रपशमीकसम्यकूटष्टिनो बंध को. अहींथां औपशमिक छाने क्षायोपशमिक सम्यक्त्वमांडे एटलुं विशेष जे अनंतानुबंधीया चार, मिथ्यात्व मोहनीय ने मिश्रमोहनीय एनो रसोदय टले ने प्रदेशोदय ढुंते थके जे तत्वरुचि होय, ते क्षायोपशमीक सम्यक्त्व कहीयेने सात प्रकृतिना बेहु उदय टले थके औपशमिक सम्यक्त्व होय ॥ २१ ॥ एवं सर्व मी एकावन्न मार्गणा द्वारे बंधस्वामीत्व को.
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