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________________ शए कर्मविपाकनामे कर्मग्रंथ. १ श्रुतादिकनो पण अनाव संजवे नही. उलटुं विशेषताथी संपूर्ण प्रगट थाय बे. कडं ले के, " श्रावरण देसविगमे, जाई विति मश्सुयाईणि आवरण सबविगमे, कहताश न हुँति जीवस्स.” उत्तर- अहीं जेम घनाघन पटलांतरित एटले मेघने बाडे रहेलो जे सहस्रनानु एटले सूर्य तेनुं अपरांतरालवर्ति जे कटकुट्यादि आवरण तेना विवरांतर गत जे प्रकाश ते घटपटादिक वस्तुने प्रकाशे बे. एटले एक तो पूर्ण जलश्री नरेलो मेघ भाडे श्रावेलो तेथी पूर्ण प्रकाश पड़ी शके नहीं, तेमा वली कुट्यादिक त्राटीनी नीतने श्राडे जे पदार्थो होय तेउनी ऊपर जेम यथार्थ प्रकाश पमी शकतो नथी. ते वस्तु केटलाएक अंशे देखाय अने केटलाएक अंशे न देखाय अथवा थोमी देखाय बे, तेम केवल ज्ञानावरणीय कर्मथी श्रावृत जे केवल ज्ञान, तेमां अपरांतरालवर्ती मतिज्ञानावरणीय आदि, तेजना क्षयोपशमरूप जे विवर एटले सूक्ष्म बिस्रो, तेउमाथी गएलो प्रकाश जीवाजीवादिक वस्तुने प्रकाशे . ते तेवी रीते प्रकाश करतो थको मतिझानादि लक्षण तेहवं तेहबुं क्षयोपशमनुं रूप अनिधानप्रत्ये पामे बे. ते कारणमाटे जेम सकल घनपटल तथा कटकुट्यादिक श्रावरणनो नाश थया पली तथाविध सूर्यनो प्रकाश तेवो अस्पष्ट नथी थतो. किंतु सर्वात्मपणे स्पष्टरूप अन्यरूपपणे नासे बे. तेम अहीं पण सकल केवल ज्ञानावरण तथा मतिज्ञानावरणादि थावरणोनो विलय थयाथी, तथाविध मतिज्ञानादिसंझिक केवल ज्ञाननो प्रकाश नथी होतो, किंतु सर्वात्मपणे यथावस्थित वस्तुनो परिछेदक स्पष्ट श्रन्यरूपज नासे बे, उक्तंच श्रीपूज्यैः " कडविवरागय किरणा, मेहंतरियस्त जद दिणेसस्स; ते कममेहावगमे, न हुँति जह तह श्माईपि.” अन्य आचार्योएं पण कह्यु :- “मलविद्यमणेर्व्यक्ति, यथा नेक प्रकारतः ॥ कर्म विकात्मकज्ञप्ति, स्तथानेकप्रकारतः ॥ १॥ यथाजात्यस्य रत्नस्य, निःशेषमलदानितः ॥ स्फुटै करूपा जिव्यक्ति, विज्ञप्ति स्तम्दात्मनः ” ॥२॥ अन्य श्राचार्य एनुं श्रावी रीते समाधान करे ते कहे -सयोगि केवलीने विषे पण, मात श्रुतादिक शान बे, पण ते केवल फलशून्य बे, तेमाटे तेनी विवदा करता नथी. जेम सूर्यनो उदय थया पली पण नक्षत्रादिक होय बे, तोपण ते निःप्रयोजक होवाथी विवदा करवायोग्य नथी. तेम अहीं पण जाणी लेवू. उक्तंच "अन्नेयानिणिबोहिय, नाणाणिजिणस्त विद्युति; अफलाविणियसूरुदये, जव नकत्तमाणि." अथवा केवल शब्द शुरू वाचक . एटले आवरणमलकलंकपंक रहित तेने केवल झान कहीएं. अथवा केवल शब्द संपूर्ण अर्थ वाचक . केमके, प्रथमथीज तदावरणकर्मनो निःशेषपणे नाश थयो बे. तेणे करी संपूर्ण उपनुं ने तेमाटे केवल ज्ञान कहे जे. अथवा केवल शब्द असाधारण वाचक अन्य कोश्ने सदृश नथी. जे सामान्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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