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________________ ១០ច शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ चार समय पर्यंत जीव रहे, ते लणी सामान्यपणे ए जघन्य प्रदेश बंध स्वामी कह्यो जे. सुमुणी के अप्रमत्त साधु घोलना योगी देवगति प्रायोग्य एकत्रीश प्रकृति बांधतो थाहारक शरीर तथा थाहारकोपांग, ए सुन्नि के बे प्रकृतिनो जघन्यप्रदेश बंध करे, जे नणी एना बंधकमांहे एज जघन्य प्रकृतिनो बंधक होय. नरयतिग के० नरकगति, नरकानुपूर्वी अने नरकायु, ए नरकत्रिक तथा चोथु सुराउ के देवायु, ए चार प्रकृतिनो जघन्य प्रदेशबंध स्वामी श्रसन्नी के असन्नी पंचेंजिय पर्याप्तो जीव, श्राप कर्म बांधतो घोलना योगी एटले जे एक योग थकी बीजे योगें संचार करतो होय ते घोलना योगी कहीयें, ते जघन्यथी तो एक समय लगें अने उत्कृष्ट तो चार समय लगें जघन्य प्रदेशबंध स्वामी होय, जे जणी जघन्य योगें जीव, चार समय उपरांत न रहे, श्रने सन्नीथाना जघन्य योग थकी असन्नीश्रानो उत्कृष्ट योग पण असंख्यातगुण हीन होय, तो वली जघन्य योग घणोज हीन होय, एमां शुं कहेवानुं ? ते जणी श्रसन्नी लीधो; तथा असन्नीया अपर्याप्ताने तो प्रकृतिनो बंधज नथी,ते जणी अपर्याप्तो न लीधो, अने एकेजियादिकने पण ए प्रकृतिनो बंध नथी, ते नणी पंचेंजियज लीधो, तथा श्राप कर्म बांधती वखतें घणा नागें कर्मदल थोडं थावे, तेमाटें आठ कर्मनो बंधक लीधो. सुर के देवगति श्रने देवानुपूर्वी, ए देवधिक तथा विउविपुगं के वैक्रिय शरीर अने वैक्रिय अंगोपांग, ए वैक्रियधिक अने जिणो के० जिननाम कर्म, ए पांच प्रकृतिनो जहन्नं के० जघन्य प्रदेश बंध स्वामी सम्मो के सम्यकदृष्टि जीव नव प्रथम समय वर्ततो होय, तेमध्ये पण अनुत्तर विमानवासी देव पोताना जव प्रथम समय खप्रायोग्य जघन्य वीर्यवंत थको जिननाम सहित मनुष्य प्रायोग्य उंगणत्रीश प्रकृति बांधतो जिननाम सहित त्रीश बांधे, तेवारें जिननामनो जघन्य प्रदेशबंधस्वामी होय, जे जणी मनुष्य तो देव प्रायोग्य असावीश, उगणत्रीश बांधे बे, पण जिननाम सहित त्रीश न बांधे. वली तिहां प्रकृति अल्प होय ते जणी मनुष्य न कह्यो, श्रने नारकी तो अनुत्तर देवधकी उत्कृष्ट योगी होय, तेथी ते घणा प्रदेश बांधे माटें ते पण न लीधो, तथा चारित्रियाने थाहारकछिक सहित अने जिननाम सहित देव प्रायोग्य एकत्रीशनो बंध होय, तिहां जो पण प्रकृतिनी बहुलता होय, तो पण ते नव प्रथम समयना एवा अपर्याप्ता अनुत्तर सुरथकी उत्कृष्ट योगी होय, तेथी ते पण न लीधो. तेमाटें सम्यक्हष्टि अपर्याप्ता अनुत्तरसुर जिननामनो जघन्यप्रदेशबंध करे, तथा शेष वैक्रियधिक अने देवछिक, ए चार प्रकृतिनो जघन्य प्रदेशबंध, सम्यक्दृष्टि मनुष्य नव प्रथम समयें वर्ततो करे, जे नणी शेषत्रण गतिना जीवने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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