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शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. Ա
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ए गणत्री प्रकृतिनुं बंध स्थानक होय, परंतु त्रीश छाने एकत्रीश प्रकृतिनो बंध तो पर्याप्तावस्थायें होय, तिहां जघन्य योग न होय, तेथी अल्प प्रदेश बंध न करी शके, तेथी ए अपर्याप्तावस्थायें मनुष्यज एना स्वामी कह्या.
तथा पिसेसा के० एथी शेष रही जे एकसो ने नव प्रकृति तेनो जघन्य प्रदेशबंध स्वामी सूक्ष्म निगोदियो लब्धि अपर्याप्तो जीव आदि क्ष एटले जव प्रथम समर्ये वर्त्ततो होय, जे जणी पूर्वे गीर प्रकृति जे कही, तेनो बंध निगो दिखाने नथी, तेथी तेना स्वामी जिन्न का . छाने ( १०५ ) प्रकृतिनो बंध एने बे तेथी एनो जघन्य बंधक स्वामी निगोदी कह्यो, केम के एथी अधिक जघन्य योग को बीजा जीवने नथी ते मध्ये पण जव प्रथम समयें वर्त्ततो घणोज जघन्ययोगी होय, तेणें करी अल्प प्रदेशबंध करे, तथा तेमां पण मनुष्यायु अने तिर्यंचायु, ए वे प्रकृतिना अल्प प्रदेशबंधस्वामी जव प्रथम समयवर्त्ति जीव न होय, जे जणी त्रण पर्याप्ति पूर्ण करया विना कोइ परजवायु बांधेज नहीं, तेमाडें ए वे प्रकृतिना जघन्य बंधकमध्यें अपर्याप्तो मात्र लेवो, पण जव प्रथमसमयवर्त्त न लेवो. एम सर्व प्रकृतिना जघन्य प्रदेशबंधखामि का. ॥ ५३ ॥
॥ वे प्रदेश बंधने विषे सादि अनाद्यादिक जांगा विचारे ठे. ॥ दंसण बग जय कुवा, बि ति तुरिच्य कसाय विग्ध नाणा॥ मूल बगेऽणुकोसो, चन्द डुदा सेसि सवचं ॥ ९४ ॥
अर्थ- चक्षुदर्शनावरणादिक चार, दर्शनावरण तथा निद्रा घने प्रचला, ए दंसबग के० दर्शनावरणषट्क, जयकुला के० जय अने जुगुप्सा, तथा वितितुरिचकसाय ho बीजा प्रत्याख्यानावरण क्रोधादिक चार, त्रीजा प्रत्याख्यानावरण क्रोधादिक चार, चोथा संज्वलना क्रोधादिक चार, विग्ध के० पांच अंतराय, नाणाणं के० पांच ज्ञानावरणीय, एवं त्रीश उत्तरप्रकृतिनो तथा मूलढगे के० एक ज्ञानावरणीय, बीजी दर्शनावरणीय, त्रीजी वेदनीय, चोथी नाम, पांचमी गोत्र अने बडी अंतराय, ए ब - मूलप्रकृतिनो श्रणुकोसो के० अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध चन्द के० चार जांगें होय. तिहां
मूलप्रकृतिनो तथा पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण अने पांच अंतराय एवं चौद उत्तरप्रकृतिनो उत्कृष्ट प्रदेशबंध सूक्ष्म संपरायगुणठाणे होय, तथा संज्वलना चार कषायनो उत्कृष्ट प्रदेशबंध, नवमे गुणगणे होय, तथा निद्रा श्रने प्रचला, ए बे प्रकृतिनो उत्कृष्ट प्रदेशबंध श्रावमा गुणगणाने प्रथम जागें होय, तथा जय ने जुगुसामोहनीयनो उत्कृष्ट प्रदेशबंध, आवमा गुणवाणाने सातमे जागें होय, तथा
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