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________________ ខ្ញុំ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ त्रीजी सबविर के सर्वविरति प्रत्ययिकी, चोथी श्रण विसंजोश्र के अनंतानुबंधिनी विसंयोजनायें गुणश्रेणी करे, पांचमी दंसखवगेश्र के दर्शनमोहनीय खपावतां गुणश्रेणी करे, बही मोहसम के चारित्रमोहनीय उपशमावतां गुणश्रेणी करे, सातमी संत के उपशांतमोहनीय गुणश्रेणी, आठमी खवगे के० रूपकश्रेणीयें गुणश्रेणी करे, नवमी खीण के क्षीणमोह गुणश्रेणी, दशमी सजोगीअर के० सयोगी केवली गुणश्रेणी अने अगीधारमी ते थकी इतर अयोगी केवलीनी गुणश्रेणी, ए अगीआर गुणसेढी के० गुणश्रेणी जाणवी. ॥ ७ ॥ १ प्रथम सम्यकत्व निमित्तें ग्रंथिनेद करता तथा बीजो अपूर्वकरण करतां स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणी, अपूर्वबंधन, ए चार वानां करतां, प्रति समये असंख्यातगुणी निर्जरा वधारतो जाय, तेम अपूर्व निवृत्तिकरणे पण जाणवो. अने सम्यक्त्व पाम्या पली पण सम्यक्त्व प्रत्यये करी अंतरमुहर्त प्रमाण शेषकर्मदल खपाववाने गोपुडाकारें दलरचना करे, ते प्रथम सम्यक्त्व गुणश्रेणी जाणवी. ए अन्य श्रेणीनी अपेक्षायें सम्यक्त्व प्रत्ययिकी मंद विशुछिनणी दीर्घ अंतरमुहर्ते वेदवा योग्य अने अल्प प्रदेशिक एवी गुणश्रेणी करे. २ ते थकी देशविरति निमित्त श्रपूर्वकरण करतो पहेली गुणश्रेणीना अंतरमुहूतथी संख्यात गुण हीन एवां अंतरमुहूर्ते वेदवा योग्य श्रने पूर्वली श्रेणीथी असं. ख्यात गुण वृद्धि प्रदेशिक दसरचनायें, देशविति गुण प्रत्ययिकी श्रेणी, ते प्रथम गुणश्रेणिनी निर्जराथकी असंख्यातगुणी निर्जरावंत एवी बीजी गुणश्रेणी करे.. _३ ते देशविरति गुणथकी अनंतगुण विशुकि बांधतो सर्व विरति लब्धि निमित्त अपूर्व करण करतो सर्वविरति गुणप्रत्ययिकी देशविरति गुणश्रेणीना अंतरमुहूर्तथी संख्यात गुण हीन एवी अंतरमुहर्ते वेदवा योग्य असंख्यातगुण वृद्धिप्रदेशात्मक असंख्यातगुण निर्जराहेतु एवी सर्व विरतिरूप त्रीजी गुणश्रेणी करे. ४ ते थकी अनंतगुणविशुछियें अनंतानुबंधीया कषाय विसंयोजतो थको सर्वविरति गुणश्रेणीना आंतरमुहूर्तयकी संख्यातगुणहीन अंतरमुहूर्ते वेदवा योग्य असंख्यातगुण वृदलिक एवी चोथी गुणश्रेणी करे. ५ तेथकी पण अत्यंत विशुद्ध परिणामें पूर्वली गुणश्रेणीना अंतरमुहूर्त थकी सं. ख्यातगुण हीन अंतरमुहूर्ते वेदवा योग्य असंख्यातगुण वृहद लिक त्रण दर्शनमोहनीयने खपाववा निमित्त, गुणश्रेणी करे, ते दायिक सम्यक्त्व प्रत्ययिकी असंख्यातगुण निर्जरारूप पांचमी गुणश्रेणी. जाणवी. ६ तेथकी पण संख्यातगुणहीन एवी अंतरमुहूर्ते वेदवा योग्य असंख्यातगुण वृक्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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