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संग्रदणीसूत्र.
घणो काल लागे, अने ए संक्षेप संग्रहणी जणतां गुणतां वखत थोमो लागे, अने कार्य घणो सरे, ए प्रयोजने शिष्य जगता थका पण पोताने पुण्य याय ने पपढा एवं पण पाठ कयुं.
संखित्तयरीनइमा ॥ सरीर मोगोहणाय संघयणा ॥ संन्ना संठा कसाय लेसिंदिय समुग्धाया ॥ ३१६ ॥ दिट्ठी दंसण नाणे ॥ जोगु वर्उगो ववाय चवा हिई ॥ पति किमादारे || सन्निगई रागई वेए ॥ ३१७ ॥
अर्थ-संखित्तयरी उश्मा के० संक्षिप्ततर एटले अति संदेष संग्रहणी ए चोवीस शरीरादिक द्वारे करी कहे बे. तेमां एक औदारिकादिक शरीर पांच; बीजुं अवगाहना ते शरीरनुं प्रमाण एटले देवता, नारकी, मनुष्य ठाने तिर्यंचनुं पूर्वोक्त देहमान; त्रीजुं वज्ररुषजनाराचादिक व संघयण; चोथुं आहार संज्ञादिक चार संज्ञा; पांचमुं समचौरंसादिक बनेदे जीवनुं संस्थान, तथा परिमंगल वृत्त त्रिरंस चजरंस ने श्रायत ते दीर्घरूप पांच दे जीवनुं संस्थान; बहुं क्रोधादिक चार कषाय; सातमुं कृलादि द्रव्य संबंध आत्मानो शुभाशुभ परिणाम जे लेश्या ते जंबुफल खादक व पुरुषना दृष्टांते करीब दे जाणवुः आठमुं कर्णादिक पांचे प्रकारे इंद्री; नवसुं समुद्घात बे नेदे, तेमां वेदना, कषाय, मरण, वैक्रिय, तेजस आहारक, ने केवली, ए सात जीवसमुद्घात कहिएं, अने अजीवसमुद्घात ते अचित्तमदास्कंध केवली समुद्रघातनी पेरे
समए लोके व्यापे, ए वे प्रकारना समुद्घातना बे द्वार जाणवा; अगीधारमुं मिथ्यादृष्टी, सम्यकदृष्टी ने मिश्रदृष्टी, ए त्रण दृष्टी; बारमुं चक्षु, अचछु, अवधि ने केवल, ए चार प्रकारे दर्शन; तेरमुं मत्यादिक पांच प्रकारे ज्ञान; चदमुं योग वीर्य उत्साह पन्नर नेदे होय; पनरमुं बार प्रकारनो उपयोग; सोलमुं उपपात ते उपजवुं; सत्तरमुं चवन ते चवकुं; श्रढारमुं श्रायुष्यनी स्थति; उगणीशमं व प्रकारनी पर्याप्ति; वीशमं किमाहारे के० जीव केवी रीते खाहार करे; एकवीरामुं दीर्घकालादिक त्र संज्ञान; बावीशमं गति; त्रेवीशमं श्रागति; चोवीशमं पुरुष, स्त्री ने नपुंसकरूप वेद; एम चोवीश द्वाररूप संक्षिप्ततर संग्रहणी वखाणी.
मलहारि देम सूरी ॥ सीस लेसेण विरइयं सम्मं ॥ "पागंतरे " ॥ सीसलेसेण सृरिणारहियं ॥ संघयणि रयण मेयं ॥ नंदजा वीरजिण तिचं ॥ ३२८ ॥
अर्थ- मलधारीगछीय श्री हेमचंद्रसूरि तेना शिष्यमांदे लव लेशसमान एवा
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