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________________ बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. ४३३ तथा अंजनानामें पंकप्रजागोत्रे चोथी नरकपृथिवी, रिष्टानामें धूमप्रजागोत्रे पांचमी नरकपृथिवी, मघानामें तमप्रनागोत्रं बही नरकपृथिवी, एत्रण नरकना नारकीने तीर्थकरनामकर्मनो बंध न होय. जेमाटे ए त्रण नरकपृथिवीथी श्राव्यो जीव, तीर्थंकरपदवी न पामे. केमके शास्त्रमा कडं वे के प्रश्रम नरकनो श्राव्यो चक्रवर्ति थाय. बीजीनो आव्यो वासुदेव थाय, त्रीजी सुधीनो आव्यो तीर्थंकर थाय, चोथी सुधीनो श्राव्यो केवली थाय, पांचमी सुधीनो श्राव्यो यति थाय, बही सुधीनो आव्यो देशविरति थाय, सातमी सुधीनो श्राव्यो मत्सादिक सम्यक्त्व पामे, पण देशविरतिपणुं न पामे, तेमाटें पंकप्रनादिकथी श्राव्यो तीर्थकर न होय, तेजणी सामान्य ए नरकगतिना जीवनो बंध जिननामकर्मथी हीन कीजें, तेथी पंकप्रनादित्रण नरकें एकोतेर प्रकृत्तिनो बंध, सम्यक्त्वगुणगणे लाने ॥ ६॥ ॥ए ब पृथिवीनुं बंधवामित्वपणुं विचारी, हवे सात मीनुं बंधस्वामित्वपणुं विचारे .॥ अ जिण मणु आज उदे, सत्तमिणए नरगुच्च विणु मि ॥ ग नवई सासाणे, तिरिआउ नपुंस चनवऊं ॥ ७॥ अर्थ-अजिणमणुबाउ के० जिननाम तथा मनुष्यायु ए बे प्रकृतियें हीन उहे के जंघे नवाणुं प्रकृति सत्तमिए के सातमी नरकें बंधाय. अने नरगुच्चविणु के मनुष्यहिक अने उच्चैर्गोत्र, एत्रण प्रकृति विनामी के मिथ्यात्वगुणगणे बन्नु प्रकृति बंधाय. अने तिरिआउ के० तिर्यंचायु तथा नपुंसचनवऊ के नपुंसकादिक चार प्रकृति वर्जीने गनवईसासाणे के एकाएं प्रकृति सास्वादनगुणगणे बंधाय॥श्त्यदरार्थः ॥७॥ जिननामकर्म तथा मनुष्यायु ए बे प्रकृति तथा विध विशुमताने अनावें माघवतीनामें तमतमप्रनागोत्रे जे सातमी नरकपृथिवी, तेना नारकीने न बंधाय, तेषी सामान्यनारकौघ एकसो एक प्रकृतिरूप बंधमांहेश्री ए वे प्रकृति हीन करीयें. जे जणी सातमीनो श्राव्यो को मनुष्य, न थाय. तेवारे तीर्थंकर पण न थाय, तेथी तत्प्रायोग्य मनुष्यना नवने योग्य ए बे प्रकृति पण न बंधाय. शेष नवाणुं प्रकृति उधे बंधाय, अने जेवारे ते नरकने विषे गुणस्थानकविशेषे बंध विचारीयें, तेवारें सातमी नरकना मिथ्यात्वी, नारकी, एक मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, उच्चैर्गोत्र, एत्रण प्रकृति न बांधे. जे जणी सातमी नरकना नारकीने उत्कृष्ट पुण्यप्रकृति एहिजडे ते तो उत्कृष्ट विशुझाध्यवसायें बंधाय अने उत्कृष्ट विशुशाध्यवसायस्थानक तो तेने चोथुगुणगणुंडे, तेथी ए त्रण प्रकृति तिहां बांधे पण मिथ्यात्वगुणगणे न बंधाय.तेथी नवा. ए॒मांदेथी ए त्रण प्रकृति हीन करीयें,तेवारें शेष अg प्रकृति मिथ्यात्वगुणगणे बंधाय. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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