SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 888
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ.६ निवाहिक स्वरूप सत्तापेक्षायें क्षय थाय. पठी आवरणं के ज्ञानावरण पांच, दर्श. नावरण चार अने अंतराएबजमछो के थंतराय पांच, एवं चौद प्रकृतिने पण बमस्थ थको चरमसमयम्मि के बेहला समयने विष हणे ॥ ५ ॥ ते चौद प्रकृति क्षय कस्या पली बांगले समयेंज व्यवहारनयमतें सयोगी केवली थाय अने निश्चयनयमतें तो तेहीज समय केवली कहीये, ते केवलझाने करी सर्व लोकालोक सर्वाशें अव्य गुण पर्यायस्वरूपें देखे, जाणे. सर्वदर्शी थाय. एवं कांश थयुं नश्री, थशे पण नहीं अने थतुं पण नथी, के जे केवली न देखे. एम जघन्य तो अंतरमुहर्त पर्यंत अने उत्कृष्टो तो श्राप वर्षे जणी पूर्वकोटी वर्षपर्यंत पृथवीतलने विषे विचरीने पली जेने वेदनीयादिक कर्म आयुःकर्मथकी अधिका नोगववां रह्यां होय, तेवां शेष क. मोने श्रायुःकर्म बराबर करवाने अर्थे ते श्राप समयनो समुद्घात करे, पण बीजा न करे. तिहां पहेले समयें पोताना शरीर प्रमाण जामो तथा उंचो, नीचो, लांबो, चौद राज प्रमाण पोताना श्रात्मप्रदेशनो विस्तार, दंडाकार करे. तथा बीजे समयें ते दंडमध्ये थी बेह पासें प्रदेश श्रेणि विस्तरे, ते लोकांत खगें उत्तर दक्षिणे पसरे, तेवारें कमाडने श्राकारें आकार देखाय, तेने कपाट कहीये. त्रीजे समय पूर्व अने पश्चिमें वली बे प्रदेशनी श्रेणि करे, ते पण लोकांत लगें पसरे, तेवारें मंथाणनी पेरें चार फडसुत्रां निकले, एवा आकारें आत्मप्रदेशनी श्रेणी पसरे. तथा चोथे समय ते मंथाण श्राकारना चारे अांतराना आकाश प्रदेश समस्त रह्या ३ तेने यात्मप्रदेशें करी पूरीने समग्रलोक व्यापी थाय. पांचमे समय वली मंथाणना आंतराने संहरे, बछे समय मंथाण संहरे, सातमे समये कपाट संहरे, आठमे समयें दंग पण संहरीने शरीरस्थ खजावस्थ थाय. तिहां पहेले समये अने पाठमे समयें औदारिक काययोगी होय, तथा बीजे, बहे अने सातमे, ए त्रण समयें औदारिक मिश्रकाययोगी होय. अने वचला त्रण समय कार्मणकाययोगी होय. ए त्रणे समये अणाहारी होय. इत्यादिक अहींां घणो विचार डे परंतु विस्तारना नयथी नथी लख्यो. _हवे कोशएक केवली समुद्घात कस्या विना पण मुक्तियें जाय. जे जणी श्री पन्नवणामध्ये कां ने “सवेविणंनंते केवली समुग्घायं गल गोयमा नोश्णमठे समझे जस्सा जएण तुलाई बंधणेहिं विश्हेय नवो पज कम्मा ॥ न समुग्घायं समगधई अगंतुण समुग्धाय मणंतकेवली जिणा जरामरण विप्पमुका सिडिवर गयं गया" ॥ जेने आयुःकर्मनी स्थितिना कर्मपरमाणु सरखाज नवोपग्राही वेदनीयादिक कर्म होय, ते समुद्घात न करे, श्रने जे करे, ते पण अंतरमुहूर्त व यु थाकतेज केवली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy