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________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ एएस हित उंगणोतेर बांधतांत्रेवीशमो नूयस्कार; ते वली नामकर्मनी बबीश प्रकृति साथै सीत्तेर बांधतां चोवीशमो नूयस्कार; ते आयुरहित अने नामकर्मनी अहावीश साथै एकोत्तर बांधतां पच्चीशमो नूयस्कार, ते गणत्रीश नामकर्मनी साथें बहोतेरना बंधे बबीशमो नूयस्कार, ते श्रायुसहित तहोंत्तर बांधतां सत्तावीशमो नूयस्कार; ते वली नाम कमनी त्रीश बांधतां शान पांच, दर्शन नव, वेदनीय एक, मोहनीय बावीश, आयु एक, नामनी त्रीश, गोत्रनी एक, अंतरायनी पांच, एम चम्मोत्तेर बांधतां श्रहावीशमो नूयस्कार; अहीं प्रकारांतरें अनेक बंधस्थानक संन्नवे, ते आपणी बुद्धिथी विचारी लेवा. एम अहावीश अस्पत्तर बंध पण विपरीतपणे सेवा अने उंगणत्रीश बंधस्थानक नणी अवस्थित बंध पण गणत्रीश लेवा. अहींआं अवक्तव्यबंध न संजवीयें, जे जणी सर्वत्र उत्तरप्रकृतिनो श्रबंधक अयोगीगुणगणे जीव होय, त्यांथी पम नथी माटें अवक्तव्यबंध न होय. ॥ इति समुच्चयार्थः॥२३॥ ॥ ए रीतें उत्तरप्रकृतिना बंध, सामान्ये कही, हवे विशेषे कहे. ॥ नव उ चऊदंसे उछ, ति छ मोहे उगवीस सत्तरस ॥ तेरस नव पण चन ति छ, इक्को नव अ6 दस उन्नि ॥१४॥ अर्थ-प्रथम ज्ञानावरणीय कर्मर्नु एकज बंथस्थानक बे, ते जणी त्यां नूयस्कारादिक न संजवे. अने नवचऊदसे के दर्शनावरणीयमांहे एक नवनो बंध, बीजो उनो बंध, अने त्रीजो चारनो बंध, ए त्रण बंधस्थानक . तेमध्ये सर्व दर्शनावरणीयनी नवे प्रकृति बांधतां प्रथमनां बे गुणगणे नव प्रकृतिनुं बंधस्थानक जाणवू. एनी जघन्य स्थिति अंतरमुहर्तनी थने उत्कृष्ट तो अजव्यनी अपेक्षायें अनादि अनंत अने नव्यनी अपेदायें अनादि सांत, तथा सादि सांत, तेोमयी श्रीणजी, निसानिमा श्रने प्रचलाप्रचला, एत्रण प्रकृतिनो बंध विद थये थके मिश्रादिक गुणगणे प्रकृतिनो बंध जाणवो.ते पण जघन्यथी तो अंतरमुहर्त अने उत्कृष्टथी तो तेत्रीश सागरोपम पूर्वकोडी पृथक्त्वें काफेरा जाणवा. तेमांथी निमा श्रने प्रचला ए बे प्रकृतिना अपूर्वकरणना प्रथम नागें बंध विछेद थये थके आठमाना शेष जागें तथा नवमे अने दशमे गुणगाणे चार प्रकृतिनो बंध जाणवो. ते जघन्य तो एक समय श्रेणी मध्ये मरण पामे तेनीअपेक्षायें जाणवो अने उत्कृष्टपणे अंतरमुहर्त प्रमाण होय, अहीं नूयस्कार तथा अस्पतरना बंध, पुकु के बे बे होय, अने अवस्थितबंध, ति के० त्रण होय तथा अवक्तव्यबंध, 5 के बे होय, ते कही देखाडे जे. तिहां उपशमश्रेणीथी पडतां श्रापमा गुणगणाना बीजा जागें आवतांसुधी दर्शनावरणी. यनी चार प्रकृति बांधतो वली अहीं बंधविछेद कस्यो हतो ते फरीश्रावतां निशा अने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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