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________________ ५१० षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ वचनयोगी ने एटले मनोयोग रहित काययोगरहित केवल एकज वचनयोगने विषे १ बेंद्रिय, २ तेंद्रिय, ३ चौरिंद्रिय, ४ असंज्ञी पंचेंद्रिय, ए चार अपर्याप्ता छाने ए चार अपर्याप्ता एवं अ० श्राव जीव नेद होय, अहींयां योग्यतारूपें वचनयोग लेवो अन्यथा बेंद्रिय अपर्याप्तावस्थायें जाषापर्याप्ति पूरी कश्या विना वचनयोगी केम होय ? तथा तिहां एक मिथ्यात्व अने बीजुं सास्वादन, एडु के० बे गुणठाणां पामीयें. केम के ए आठ जीवनेदें वे गुणठाणांज होय. तेथी बे गुणठाणां कां, तथा एने विषे १ औदारिक, २ औदारिक मिश्र, ३ कार्म्मण, ४ असत्यामृषा, एवं चल के० चार योग पामीयें. अने १ मतिज्ञान, १ श्रुतश्रज्ञान, ३ चक्कुदर्शन, ४ चतुदर्शन, ए च के चार उपयोग वयणे के० वचनयोगीने विषे पामीयें. 4 तथा मनोयोग ने वचनयोग ए वे योगें रहित केवल एकज काययोगीने विषे एकेंद्रिय सूक्ष्म ने बादर ते वली पर्याप्ता ने अपर्याप्ताना ने करी च के चार जीवनेद पामीयें. केम के केवल काययोग एनेज होय, अने मिथ्यात्व तथा सास्वादन, एडुके० बे गुणवाणां पृथिव्यादिकमांहे सम्यक्त्व वमतो देवादिक अवतरे, ते अपेक्षायें होय. तथा १ श्रदारिक, २ चौदारिक मिश्र, ३ वैक्रिय, ४ वैक्रियमिश्र, ५ कार्म्मण, एवं पण के० पांच योग पामीयें, श्रहींयां वैक्रियशरीर वायुकायनी अपेक्षायें लीधुं. तथा १ मतिज्ञान, २ श्रुतज्ञान, ३ चतुदर्शन, ए तिनि के० त्रण उपयोग काए के० एकज काययोगने विषे पामीयें. ए रीतें मतांतरें योगमार्गणायें जीवनेद, गुणठाणां, योग, अने उपयोग, ए चार बोल अन्य आचार्य कहे बे. ते कथा. एटले पूर्वे जे योग कह्या तिहां काययोग सर्व जीवने को. अने वचनयोग बेंद्रियादिक सर्वने कह्यो, अने मनोयोग संज्ञी पंचेंद्रियने को. ने यहींयां मतांतरें अनेरा आचार्य कहे बे, जे एक योग होय तेनें बीजो योग न कहीयें, संज्ञी पंचेंद्रियनें मनयोग बे, तेने वचनयोग काययोग नहीं. विकलेंद्रिय संज्ञी पंचेंद्रियने वचनयोगज कद्देवो. अने एकेंद्रियने काय - योग कहीयें. तेने मतें ए वात कही बे ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ३८ ॥ हवे मार्गाद्वारे व लेश्या कहेते. जे जणी मार्गणास्थित जीवनी उपयोगशुद्धि लेश्याशुद्धियें करी जाय तथा शुभयोग प्रवृत्ति पण शुभ उपयोगें जाय. अशुभयोग प्रवृत्ति अशुभ उपयोगें होय, ते जणी उपयोग का पढी लेश्या द्वार कहे बे. Jain Education International बसु सासु सवाणं, एगिंदि प्रसन्न नूदगवणेसु ॥ पढमा चउरो तिन्निन, नारय विगलग्गि पवणेसु ॥ ३० ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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