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________________ षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ ५११ अर्थ-उसुलेसासु के ब लेश्यामार्गणाद्वारे सगणं के स्वस्थान ते श्राप श्रापणी एकेकी लेश्या होय एटले कृमलेश्यामार्गणायें कृमलेश्या अने नीललेश्यामार्गणायें नीललेश्या होय, एम खख मार्गणायें स्वस्व लेश्या एकेकी होय, एगिदि के एक एकेंजियमार्गणा, असन्नि के बीजी असंझीमार्गणा, नूदगवणेसु के त्रीजी पृथवीकायमार्गणा, चोथी अपकायमार्गणा, पांचमी वनस्पतिकायमार्गणा, ए पांच मार्गणाछारने विषे पढमाचलरो के प्रथमनी चार लेश्या होय, एटले कृम, नील, कापोत थने तेजो, ए चार लेश्या पामीये. त्यां त्रण लेश्या सहेजें होय अने चोथी तेजोलेश्या तो पृथिवी, अप अने वनस्पतिमाहे सौधर्म, इर्शान देवलोकना देवता चवीने श्रवतरे, जे जणी ते देवता पोताना नवनी लेश्या शेष होय, तेनी साथे चवे तेथी एकेंजियादिक मध्ये तेजोलेश्या पामीयें. तिनिउ के कृप्स, नील अने कापोत, ए त्रण लेश्या अशुन परिणामें होय. ते नारय के नरकगतिमार्गणा तथा विगलग्गि के विकलेंजियनी त्रण मार्गणा अने पांचमी अग्निकायमार्गणा, तथा पवणेसु के बही वायुकायमार्गणा, ए मार्गणाझारे ए प्रथमनी त्रण लेश्या होय. ए बए मार्गणा स्थित जीव अशुन अध्यवसाय स्थानकें वर्ते ले ते जणी एने ए अशुजलेश्या त्रण होय, शेष त्रण शुज लेश्या न होय ॥ ३ ॥ अदखाय सुहुम केवल, अगि सुक्का गवि सेस गणेसु ॥ नर निरय देव तिरिआ, थोवा दु असंखणंत गुणा ॥४०॥ अर्थ- श्रहखाय के यथाख्यातचारित्र अने सुहुम के० सूक्ष्मसंपरायचारित्र, केवलागि के० केवलज्ञान अने केवलदर्शन, एवं चार मार्गणाधारें सुका के० शुक्ललेश्या होय, जे जणी अतिविशुक अध्यवसायस्थानके ए वर्ते, ते नणी एने शेष पांच लेश्या न होय, अने बाविसेसगणेसु के शेष एकतालीश मार्गणाधारें 3 लेश्या पामीयें, ते एकतालीश मार्गणानां नाम कहे बे. देव, मनुष्य ने तिर्यच, ए त्रण गतिमार्गणा तथा एक पंचेंजियमार्गणा तथा त्रण योगनी त्रण मार्गणा, एक त्रसकाय मार्गणा, त्रण वेदनी त्रण मार्गणा, चार कषायनी चार मार्गणा, एवं पंदर, सात छाननी सात मार्गणा, पांच संयमनी पांच मार्गणा, त्रण दर्शननी त्रण मार्गणा, एवं त्रीश; जव्य तथा अजव्यमार्गणा, ब सम्यक्त्वनी मार्गणा, संझीमार्गणा, थाहारकमार्गणा अने अनाहारकमार्गणा; एवं एकतालीश मार्गणायें बए लेश्या होय. अहीं जो पण अजव्यादिकने अशुभ परिणाम नणि अशुद्ध लेश्या कहीयें, तो पण व्यवहारें शुजयोग प्रवृत्तियें करी जैनशुव्य क्रियायें करी नवमा अवेयक सुधी पहोंचे ते जणी एने पण शुक्ललेश्या कहीयें. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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