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________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ६१ जीव धीर्ये हीन थको पोतानां अत्यंत चीकणां कर्म तेने अज्ञानोपहत एवा. बालतपश्चरणादिक नूंग शस्त्र प्रायें करी घणा काले पण अल्प कर्म निरे, अने सम्यकदृष्टि जीव ज्ञानादिक गुणे बलिष्ट होय, माटे तेहना शुनपरिणाम वृद्धियें रसघात स्थितिघातें करी नीरस निःसार एरंड जेवा थयला कर्मोने ते अपूर्वकरणादिक तीक्ष्ण शस्त्रे करी अल्प कालें पण घणा बेदी नाखे, ते माटें गुणश्रेणी गुणश्रेणी प्रत्ये यथोत्तर वीर्यवृद्धिये कर्म निःसार होय. तेने गुणनिर्मलतारूप शस्त्रे करी असंख्यगुणी असंख्यगुणीनिर्जीरा वधे, तिहां सर्वोत्कृष्ट कर्म निर्जरा अयोगी केवलीने होय॥३॥ ॥ एम गुण विशुझिये निर्जरा वधे ते नणी गुणगणानो अंतरकाल कहे . ॥ . पलिआ संखंसमुहू, सासण अर गुण अंतरं हस्सं ॥ गुरु मिलि बे सही, इयरगुणे पुग्गलईतो ॥ ४ ॥ अर्थ-सासण के साखादन गुणगणानुं पलियासंखंस के पट्योपमनो असंख्यातमो नाग जघन्यथी आंतरं जाणवू, जे नणी साखोदन गुणगणुं एक वार स्पर्शी, वली बीजी वेलायें स्पर्श. एने वचमांनो काल तेने सास्वादननुं श्रांतलं कहीये, ते जघन्यथी तो पक्ष्योपमासंख्येय जाग प्रमाण होय, जे जणी कोइएक जीव मोहनीयनी बबीश प्रकृतिनी सत्तायेंथको औपशमिक सम्यक्त्व लही, त्रिपुंज करी, अष्टाविंशति सत्कर्मा थाय, तेवारें पमतां सास्वादनपणुं पामे. तिहांथी वली मिथ्यात्वें जाय, तिहां मिथ्यात्वप्रत्ययें सम्यक्त्वमोहनीय मिश्रमोहनीयने समय समय उवेलता, जवेलता, पक्ष्योपमासंख्येय नाग काल प्रमाण ते मोहनीयनी बे प्रकृतिने उवेली रहे, तेवारें मिश्र तथा सम्यक्त्वनी सत्ता रहित थयो थको बबीश सत्कर्मा थाय, वली पण को एक जीव औपशमिक सम्यक्त्व पामी, तिहांथी साखादनपणुं पामे तेणे एथी हीन श्रांतरं न कहुं तथा जे जीव, उपशम श्रेणीथी पमतो साखादनपणुं पामी वली अंतरमुहर्त्तने आंतरें बीजी वेला उपशमश्रेणी पविजे, ते वली तिहाथी पमतो साखादन गुणगणे श्रावे. ए अपेदायें अंतरमुहर्त्तनुं पण आतलं होय. अंतरमुहर्तना असंख्याता नेद , तथा ए गुणगणानो काल पण अंतरमुहूर्त्तनो बे, अने सर्व गुण. "गणां पण अंतरमुहर्त्तमांहे स्पर्श, अहीं विरोध को नथी. ए रीतें अंतरमुहर्त्तनुं 'आंतरं पण साखादननुं लाने, परंतु ते मनुष्यमध्येंज को एकने होय पण देवादिकने न होय, ते माटें श्रदप जणी श्रहींां विवयु नहीं, तथा बीजे कशे कारणे विवद्युं नहीं. तथा ए सास्वादन थकी श्यरगुण के इतर एटले बीजा मिथ्यात्वादिकथी उपशांतमोहपर्यंतना दश गुणगणानुं अंतरंहस्सं के जघन्यथकी आंतरं मुहू के अंतरमुहूर्त अंतर्मुहुर्तनुं जाणवू. जे नणी कोइएक जीव, उपशमश्रेणीश्री पम्तो मिथ्यात्व गुण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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