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________________ ६० शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ दधिक अंतरमुहर्तमान जाणवो. ते वेद्यमान अंतरमुहर्त्तथी उपरली स्थितिना दलिक उतारी, उतारी, वेद्यमान स्थितिना उदयथी प्रतिसमये असंख्यातगणो असंख्यात. गुणो वधतो चरम समय लगें संक्रमावे, एटले उपरली स्थितिनुं उतारयुं जे दल, ते मध्ये प्रथम समयें स्तोक संक्रमावे. तेथी बीजे समये असंख्यातगुणो संक्रमावे. तेथी वली त्रीजे समये असंख्यातगुणो संक्रमावे. एम समयें, समये, असंख्यात गुणाकारें वधारतो, वधारतो अंतरमुहर्त्तने चरम समय सर्वोत्कृष्ट संक्रमावी, नोगवीने खपावे, पण गुणश्रेणीनो काल वधारे नहीं. ए रीतें सर्व गुणश्रेणीनुं स्वरूप जाणवू. पण एकेकथी श्रेणीनुं अंतरमुहूर्त संख्यात गुण हीन हीनकाल पूर्वली श्रेणीनी अपेक्षायें होय, अने कर्मदल असंख्यातगुणां वधता होय. तिहां देशविरति अने सर्व विरतिपणुं पामतो बे करण करे, पण त्रीजु अनिवृत्तिकरण न करे, तथा देशविरति अने सर्व विरतिश्री आजोगें पड्यो, अने वली जे देशविरत्यादिक पमीवजे, तेवा, पण ते बे करण करे, अने अनाजोगें पड्यो ते करण कस्या विना चढे, ए बे करण करी देशविरति सर्व विरत्यादिक गुण लहे तो जीव अवश्य वधते परिणामें होय. तिहां वधते परिणामें केवारें एक असंख्यात जागाधिक अने केवारें एक संख्यात जागाधिक, केवारें एक संख्यात गुणाधिक अने केवारे एक असंख्यात गुणाधिक दलिक रचना करे. तिहां हीयमान परिणामें ए चारे हीयमान दलिक रचना करे, अने तुल्य परिणामें तुल्य दलिक रचना करे, पण पोतपोतानी गुणश्रेणीनुं अंतरमुहर्त्त सरखुंज होय, तथा अनंतानुबंधियानी विसंयोजना देवता, मनुष्य अने नारकी पर्याप्ता अविरति, सम्यक्दृष्टि देशविरति अने सर्वविरति, ए सर्वत्रण करणे करी करे, तिहां अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण कालें गुणश्रेणी करे. ए मध्ये प्रथम त्रण गुणश्रेणी सम्यक्त्व देशविरति अने सर्व विरतिथी सहसात्कारें पड़ता केटलोएक काल मिथ्यात्वगुणगणे पामीये. ए गुणश्रेणीनी सविस्तर वक्तव्यता कर्मप्रकृति तथा पंचसंग्रहनी बृहत्टीका थकी जाणवी. तथा ए श्रगीआर गुणश्रेणीना जीव अनुक्रमें एकेकथी असंख्यातगुणी निर्जरावंत होय, एटले मिथ्यात्व थकी सम्यक्त्व गुणश्रेणीय अनंतगुण निरा होय. जेम कोइएक वृक्ष पुर्बल रोगाक्रांत चित्तचिंतातुर पुरुष होय, ते जेनी धारा न होय, एवा लूंगा काटें नरेला कूहामायें करी बावलीयां तथा खेरना काष्ट वेढाने कापतो घणो सुःखी थाय, तो पण घणे काले थोमांक कापी शके, अने कोइएक तरुण निरोगी निश्चित दृढ संघयणी पुरुष, तीक्ष्ण एवा सार लोह फरशीयें करी, सूकी एरंड तथा श्राकडानी लाकडी थोमा कालमां पण घणी कापी नाखे, तेम मिथ्यात्वी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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