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________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ तिर्यंचायु बंधनो एकेको नांगो टले. एवं घाव जांगा टले, तेवारें शेष वीश जांगा रहे. तथा देश विरतिगुणठाएं तो मनुष्य ने तिर्यंचने होय, ते तो देश विरति बतां देवायुज बांधे तेमाटें मनुष्य, तिर्यंचने प्रत्येकें बंधकालावस्थायें एकज जांगो तथा परजवायुर्बधकाल की पूर्वे एकेको नांगो ने श्रायुर्बंध काल पढी चारे जांगा होय. जे कोइक तिर्यंच अथवा मनुष्य चारे आयु मांदेलुं एक श्रायु बांधीने पढी देशविर तिपणुं पामे तेनी अपेक्षायें उत्तरावस्थाना चार जांगा कह्या. ए रीतें ब ब जांगा तिर्यंच ने मनुष्यना लेतां बार जांगा पांचमे गुणठाणे पामीयें. तथा प्रमत्ताने अप्रमत्त, ए बे गुणगणां मनुष्यनेज होय, माटे मनुष्यना ब जांग देशविर तिनी पेरें जाणवा, ए गुणठाणे तिर्यच नथी तेथी तेना जांगा टल्या. ८०३ तथा श्रावमे, नवमे, दशमे, अने अगी श्रारमे, ए चार गुणठाणे उपशमश्रेणीनी अपेकायें बेबे जांगा होय, एक मनुष्यायुनो उदय ने मनुष्यायुनी सत्ता, ए जांगो, श्रायुबंधकाली पूर्वलो होय, छाने मनुष्यायुनो उदय तथा मनुष्यायु ने देवायुनी सत्ता, ए बीजो गार्बंध काल पढी उत्तरावस्थानो होय, ए बे जांगा होय. एने बंधकालावस्थानो जांग न होय, जे जण । ए अत्यंत विशुद्ध बे माटें श्रायु न बांधे अने श्रायु बांध्या पठी उपशमश्रेणी पमीवजे, तोपण देवायु बांध्या पठी पडीवजे. परंतु बीजां त्रण गतिनां श्रायु बांध्या पढी उपशमश्रेणी परिवजे नहीं. जे जणी कम्मपयडीमध्यें शीवशर्म सूरियें कथं वे "तिसु आउगेसु बसु, जेण सेढि न आरोहइति” अने पूर्वं श्रायुबंध का पी पकश्रेणी करे नहीं माटें रूपकने मनुष्यायुनो उदय भने मनुष्यायुनी सत्ता, रूपकश्रेणीयें ए चार गुणठाणे श्रायुःकर्मनो एकज जांगो होय, तथा कमोद, सयोगी ने अयोगी, ए त्रण गुणठाणाने विषे मनुष्यायुनो उदय ने मनुष्यायुनी सत्ता, ए एकज जांगो होय.: ए मिथ्यात्वादिक चौद गुणगाणे आयुःक ना बंधोदय सत्ता संवेधें जांगा कह्या. ते सर्व मलीने (१२५) थाय ॥ इति समुच्चयार्थः ४७ ॥ अथ गुणस्थानेषु मोहनीयस्य बंधस्थानान्याह || हवे चौद गुणगणाने विषे मोहनीय कर्मनां बंधस्थानक विवरीने कड़े बे ॥ गुणवाणगे असु, इक्किक्कं मोह बंधवाणं तु ॥ पंचानिहि ठाणा, बंधोवरमो परं तत्तो ॥ ४८ ॥ अर्थ- गुणठाणगेसुअसु के० मिथ्यात्वादिक व गुणवाये इक्किकंमोहबंधवाणंतु के० मोहनीयकर्मनुं एकेकुं बंधस्थानक होय, एटले मिथ्यात्वें बावीशनो बंध, सास्वादने एकवीरानो बंध, मिश्र ने अविरतियें सत्तर सत्तरनो बंध, देशवि Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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