________________
सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६
न होय, जे जणी "गइजाइ परुच्च उच्चगोश्र उच्च होई” ए वचने उच्चैर्गोत्रनोज तिहां उदय होय, तथा बसु के प्रमत्त गुणठाणाथी मांमीने आठ गुणठाणे प्रत्येक एग के० एकेक नांगो होय. तिहां प्रमत्तथी सूक्ष्म संपराय लगें पांच गुणठाणे तो उंच गोत्रनोज बंध, उदय होय, माटें एक पांचमो नांगोज होय. धने उपशांतमोड़, क्षीणमोह ने सयोगी, ए त्रण गुणठाणे गोत्रनो बंध नथी माटे उच्चैर्गोत्रनो उदय ने बेहुनी सत्ता, ए बहो जांगो होय, तथा इक्कमि के० एक छायोगी गुणठाणे पुन्नि to बे जांगा होय. तिहां उंचनो उदय ने बेनी सत्ता, ए बठो जांगो, द्विचरम समय लगें होय अने उंचनो उदय तथा उंचनी सत्ता, ए सातमो जांगो, चरम समय लगें होय ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ४६ ॥
८०
॥ अथ श्रायुर्जगज्ञानार्थमियमंतव्यगाथा | हवे आयुः कर्मना जांगा जाणवाने जायनी गाथा कहे . ॥
वादिगवीसा, सोलस वीसं च बारस व दोसु ॥
दो चसु ती इकं, मासु प्रान नंगा ॥ ४७ ॥
अर्थ-हिगवीसा के० प्रथम गुणठाणे श्रद्वावीश जांगा ने बीजे गुण ठाणे वीश जांगा, त्री जे गुणठाणे सोलस के० शोल जांगा, चोथे गुणठाणे वीसंच के० वीश जांगा, पांचमे गुणठाणे वारस के० बार जांगा, दोसु के० बहे अने सातमे गुणठाणे के जांगा, चउसु के० आठमे, नवमे, दशमे अने श्री रमे गुणगणे दो के बेबे जांगा; तीसु के० बारमे, तेरमे ने चौदमे, ए त्रण गुणठाणे इकं के० एक जांगो. ए रीतें मिठासुख उपजंगा के० मिथ्यात्वादिक चौद गुणठाणे श्रायुःकर्मना जांगा जाएवा ॥ इत्यक्षरार्थः ॥ ४७ ॥
मिथ्यात्व गुणठाणे तो पूर्वे कदेला अहावीशे जांगा आयुना होय, जे जणी चारे गतिना जीव मिथ्यादृष्टि होय. तथा मिथ्यात्वें चारे युनो पण बंध बे, तेथी देवना पांच, नारकीना पांच, तिर्यंचना नव छाने मनुष्यना नव, ए सर्व होय.
तथा सास्वादने नरकायुनो बंध नथी माटें तिर्यंच तथा मनुष्यने आयुर्बंध कालावस्थाना नरकायु बंधना बे जांगा टले, तेवारें शेष बवीश जांगा होय.
तथा मिश्रा युनो बंधज नथी माटें बंधकालावस्थाना देव नारकीना बे बे तथा तिर्यंच ने मनुष्यना चार चार, एवं बार जांगा टले तेवारें शोल जांगा रहे.
तथा अविरति सम्यक् ष्टिमां. तो तिर्यंच ने मनुष्यने एक देवगति विना शेष त्र गतिनां यु न बांधवा संबंधिना त्रण त्रण जांगा टले ने देव तथा नारकी मध्यें
Jain Education International
For Private Personal Use Only
www.jainelibrary.org