SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 330
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मविपाकनामे कर्मग्रंथ.१। ३०५ श्रादेशे सर्व क्षेत्र लोकालोक जाणे पण देखे नहीं. काल थकी श्रादेशे सर्वकाल जा. णे पण देखे नही. नाव थकी श्रादेशे सर्व जाव जाणे पण देखें नही. ए विषे निदलिताऽज्ञान संचार प्रसर श्री देवर्षिवाचक वर कहे डे के “ तं समास चनविहंपन्नतं, तं जहा, दवर्ड, खेत्त, काल, नाव दवर्डणं यानिणिबोहिय नाणी श्रीएसेणं सबनावा जाण न पास खित्तठणं आनिणिबोहियनाणी श्राएसेणं सबंखित्तं जाण न पास कालणं श्राजिणिबोहियनाणी आएसेणं सब कालं जाणश्न पासश, जावठणं यानिणिबोहियनाणीश्राएसेणं सवं जावे जाण न पास. इति मति ज्ञानना नेद कह्या. ॥५॥ ॥ हवे श्रुतज्ञानना नेद कहे जे. चौदसहा वीसहा वसुयंति. श्रुतझान चौद अने॥ ॥ वीश प्रकारचं डे तेमांना प्रथम चौद प्रकार कहे जे ॥ अस्कर सन्नी सम्म, सायं खलु सपद्य वसियंच ॥ गमियं अंग पविठं, सत्तविए एस पडिवका ॥६॥ अर्थ- अक्षरश्रुत, अनकरश्रुत, संझीश्रुत, असंझीश्रुत, सम्यक्श्रुत, असम्यकश्रुत, श्रादिश्रुत, अनादिश्रुत, पर्यवसितश्रुत, अपर्यवसितश्रुत, गमिकश्रुत, अगमिकश्रुत, अंगप्रविष्टश्रुत तथा अंगबाह्यश्रुत, एवीरीते एस के ए सत्तविए के सात सूत्रोक्त नेद ते पमिवरका के पोताना प्रतिपक्षी सहित कहेवा. एटले श्रुतज्ञानना चौद नेद थाय ते जाणवा. इति गाथा शब्दार्थ ॥ ६ ॥ - अहीं श्रुत शब्दनो संबंध पूर्व गाथाथी जाणवो. हवे उक्त चौद नेदर्नु विवरण लखिये बैये, तेमांना प्रथम अक्षर श्रुतना त्रण नेद बे. संज्ञाकर, व्यंजनाकर तथा लब्ध्यकर. उक्तंच- " तं संना वंजण लकि, संनियंतिविद मकरं नणियं, सुबहलिविनेय निययं संनकर मरकरागारो” तेमां प्रथम संझाकर अढार प्रकारनी बीपी अदरना श्राकारे करीअढार प्रकारनुं बे,- तथाहि "हंसलिवी नूय लिवी, जकातह रस्कसी य बोधवा; उड्डी जवणितुरुक्की कीरी दवमीय सिंधविया ॥१॥ मालविणीनडि नागरि, लाडलिवी पारसी य बोधवा; तह अनमित्ती य लिवी, चाणकी मूल देवीय ॥२॥ बीजो व्यंजनाहर प्रकार ते अकार आदि लश्ने हकारपर्यंत बावन्न श्रदर मुखे उच्चारवारूप जाणवो. ए बन्ने प्रकारो यद्यपि अज्ञानात्मक डे, तथापि श्रुतना कारण होवाथी उपचारे करी एने श्रुतज्ञाननी संज्ञा आपी बे, तथा त्रीजो प्रकार जे लब्धि श्रदर ते शब्दश्रवण तथा रूप दर्शनादिक थकी अर्थ परिझान गर्चित जे श्रकरनी उपलब्धि ते लब्ध्यदर श्रुत जाणवू. यदाह- "जो अस्करोवलंजो, सा लझी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy