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३०० कर्मविपाकनामा प्रथम कर्मग्रंथ. १
सिरि हरिअसमं एअं, जह पडिकूलेण तेण रायाई॥
नकुण दाणाईअं, एवं विग्घेण जीवोवि ॥ ५३ ॥ थर्थ- सिरिहरिश्र के लक्ष्मीनु घर एटले श्रीगृह ते जंमार, तेनो अधिकारी ते पण श्रीग्रही एटले नंमारी समंएवं के० ते सरखुं, ए अंतरायकर्म कां वे जह के० जेम ते नंडारी पमिकूलेण के प्रतिकूल थके, तेणरायाई के० ते राजादिक दानादिक करवा वांजे, पण ते योगें नकुणदाणाई के० दान लान नोगादिक न करी शके. एवं विग्घेणजीवोवि के एम अंतरायकर्मे करी जीवरूप राजापण जाणवो ॥श्त्यदरार्थ॥
नंमारीनुं दीधुं, जेम राजा दीये, लान्ने, नोगवे, तेम अंतरायकर्मनो जेवो दयो. पशम तेवो जीव दीये, लाने, जोगवे, जेम ते भंडारी, उते माले देवराववा नहिं दे, तालुं न खोले तो राजा मालनो धणी ने तो पण दक्ष, लेझ, जोगवी न शके. एम आदिशब्दथकी मंत्रीश्वर, श्रेष्ठी, सार्थवाहादिक पण नंडारी रूंधि वस्तुनुं दान, लान, जोग न पामे, तेम जीवरूप राजा पण अंतरायकर्मरूप नंडारीने वश थको दान, लान, नोग, उपनोग, वीर्य, वांडतो पण दव, लक्ष, जोगवी, उपनोगवी तथा वीर्यवल फोरवी न शके, जेवारे तेने क्षयोपशमें तथा दयें करी तथा आत्माने श्रायत वस्तु होय, तेवारे ते यथेलायें देश, लेश, जोगवे, बल वीर्य फोरवे. एटले अंतरायकर्मनी पांच प्रकृति कही. ए रीतें थावे कर्मनी मूल उत्तर एकसो ने अहावन प्रकृतिनां लक्षण स्वरूप कह्यां तेनो यंत्र लख्यो ॥ ५३ ॥
हवे ए श्राप कर्म बांधवाना मुख्यहेतु तो मिथ्यात्व, अविरति, कषाय अने योग, ए चार बे. ते तो आगल चोथा कर्मग्रंथने विषे सविस्तरपणे कशे, परंतु इहां स्थूल हेतु कहे जे. त्यां प्रथम ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीयना हेतु कहे जे.
पमिणीअत्तण निन्दव, जवघाय पस अंतराएणं॥
अच्चासायण याए, आवरण उगं जि जयई ॥५४॥ श्रर्थ-पमिणीश्रत्तण के गुर्वादिकनुं प्रत्यनीक एटले अनिष्ट आचरणनो करनार, निन्दव के उलववे करी, उवघाय के उपघाय एटले हणवे विनाशवे करी, पस के प्रोष राखवे करी, अंतराएणं के अंतराय करवे करी, श्रच्चासायणयाए के० ज्ञानदर्शननी अत्यंत आशातना करवे करी, श्रावरणपुगं के ज्ञानावरण थने दर्शनावरण ए बे आवरणने जि के जीव, जयई के० उपाय ॥ इत्यदरार्थः ॥ ५४ ॥
१ मतिश्रुत प्रमुख पांच ज्ञाननी तथा ज्ञानवंतनी तथा ज्ञानोपकरण पुस्तकादिकनी प्रत्यनीकता एटले अनिष्टपणुं, प्रतिकूलपणुं करवं, जेम ज्ञान, ज्ञानवंतने मा थाय
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