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________________ बंधस्वामित्वनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ योग मानवो जोयें, तो तेना मतें सन्निया अपर्याप्ताने विषे १ औदारिक, २ औदारिकमिश्र, ३ वैक्रिय, ४ वैक्रियमिश्र,५ कार्मणयोग, ए पांच योग संजवे, तथा श्रीशीलांकाचार्यने मते चार योग होय, जे जणी एब नेद, अपर्याप्ता जे कह्या ते लब्धियी अपर्याता पण सेवा, श्रने देवता तथा नारकी तो लब्धि अपर्याप्ता न होय, तेथी चार योग सन्निथा अपर्याप्ताने होय. ॥७॥ सचे सन्निपजत्ते, उरलं सुटुमे सन्नासु तं चनसु ॥ बायरि सविनवि अगं, (अथोपयोगानाद )॥ पजसन्निसु बार उवउँगा॥॥ अर्थ-सवेसन्निपजत्ते के संझी पंचेंजिपर्याप्ताने सर्व पंदर योग होय, अने सुहुमे के सूक्ष्म एकेजिय पर्याप्ताने उरलं के० एकज औदारिककाययोग होय, सनासुतंचनसु के तेहिज नाषा सहित विकलत्रिक अने असंझी पंचेंजिय, ए चार पर्याप्ता जीवन्नेदें एक औदारिकयोग अने बीजो सनासु एटले जाषासहित एटले सत्यामृषावचनयोग, ए बे योग होय, अने बायरि. के बादर एकेजियपर्याप्ताने विषे सविन विगं के० औदारिकसाथें वैक्रिय अने वैक्रिय मिश्र सहित करतां ए बे योग तथा औदारिक, एवं त्रण योग होय. हवे उपयोग कहे . पजसन्निसुबारउवउंगा के० पर्याप्ता संझी पंचेंजियमांहे बार उपयोग होय. संझी पंचेंजिय पर्याप्ताने विषे मनना योग चार, वचनना योग चार, औदारिक, थाहारक, श्राहारकमिश्र, वैक्रिय, वैक्रियमिश्र, औदारिकमिश्र अने कार्मण, ए पंदरे योग होय. तेमांहे वैक्रियछिक देवता नारकी अपेक्षायें तथा उत्तरवै क्रियशरीर करतां प्रारंजवेलायें मनुष्य तथा तिर्यंचने पण वैक्रिय औदारिकसाथें मिश्र होय. पनी वैकिययोग होय तथा आहारकशरीर चौद पूर्वधर मनुष्य जिनशधि देखवानिमित्तें करे, तेवारेंथारंजती वेलायेंते औदारिकसाथें श्राहारक पुजल मिश्र करे, त्यां श्राहारकमिश्रयोग होय. पडी थाहारकयोग होय, तथा केवलीने श्राप समयनो केवलसमुद्घात करतां बीजे, बहे अने सातमे, ए त्रण समयें औदारिकमिश्र योग होय, तथा त्रीजे, चोथे अने पांचमे, एत्रण समयें कामणकाययोग लेवा. पण अपर्याप्तावस्थायें जे कार्मणकाययोग होय ते न लेवा. केमके ते अपर्याप्तामांदेज गण्या . ए सौ पंदर योग होय. सूक्ष्मएकेजिय पर्याताने एकज औदारिकयोग होय. जे जणी तेने वैक्रिया दिकयोग करवानी शक्ति नथी, तेम मन अने वचन पण नथी; औदारिकमिश्र कार्मण तो अपर्याप्तावस्थायें होय पण पर्याप्तावस्थायें नहिं होय. हवे औदारिक योग अने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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