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________________ कर्मविपाकनामे कर्मग्रंथ. १ ३न्य कीर्ति, प्रमुख श्रणवांछतो पण स्वनावें दान देवानी रुचि तीव्र होय जेने एवो, क्षमा, श्राजैव, माईव, सत्य, शौचादिक,मध्यम गुणें वर्त्ततो. एटले अनागाढ मिथ्यात्वी, गुणहीन सम्यक्दृष्टि उत्कृष्टगुणना ते जणी अनागाढ, मिथ्यात्वी, मध्यम गुणशुं संबोध्य एटले बूजव्यो, देव, गुरुपूजा प्रीय कापोतलेश्या परिणामें जीव, मनुष्यायु बांधे. ॥ ५० ॥ ॥हवे देवायुना बंधहेतु कहे . ॥ अविरय मा सुराज, बालतवोऽकाम निजरोजय॥ सरखो अगार विल्लो, सुदनामं अन्नदा असुहं ॥५॥ अर्थ-अविरयमाश्सुरा के अविरतिसम्यकदृष्टयादिक देवायु बांधे, बालतवोऽकामनिङरोजाय के बालत करी, तथा ब्रह्मचर्ये करी, थकामनिर्जरा जपा?, श्रने सरलो के निष्कपटी, श्रगार विलो के गारवरहित थको सुहनामं के शुजनामकमनी प्रकृति बांधे, तथा अन्नहायसुहं के अन्यथा कपट गारवसहित अशुन नामकर्मनी प्रकृति बांधे. ॥ ५ ॥ __ अविरतिसम्यक्दृष्टि, मनुष्य, तिर्यंच, देवायु बांधे, घोलना परिणामें सुमित्र संयोगें, धर्मरुचिपणे, देशविरतिगुणे, सरागसंयमें देवायु बांधे. बालतप एटले फुःखगनित, मोहगर्जित वैरागें करी पुष्कर कष्ट पंचाग्निसाधन रसपरित्यागादिक अनेक मिथ्यात्वज्ञाने तप करतो, सनिदान उत्कट एटले अत्यंत थाकरो, रोष गारवें तप करतो, असुरादिकयोग्य थायु बांधे. तथा अकामनिओरायें, अज्ञानपणे नूख, तृषा, टाढ, ताप, रोगादिक कष्ट सहेतो, स्त्री श्रण मिलते शील धारण करतो, विषयसंपतिने अनावें विषय श्रणसेवतो. इत्यादिक अकामनिर्जरायें तथा बालमरण एटले कांहिंएक तत्प्रायोग्य शुजपरिणामें वर्ततो, रत्नत्रय विराधनायें व्यंतरादि योग्य वायु बांधे, तथा श्राचार्यप्रत्यनीकतायें किल्बिषिकायु बांधे, तथा मुग्धजन मिथ्यात्वीना गुण प्रशंसतो, महिमा वधारतो, परमाधामी- श्रायु बांधे. एम श्रायुःकर्मना बंधहेतु कह्या. तथा अकर्मनूमिना मनुष्यने अणुव्रत, महाव्रत, बालतप, थकामनिर्जरादिक देवायुना बंधहेतु विशेष को नश्री, तथा अही केटलाएक मिथ्यात्वी जे तेथी तेने देवायु केम संचवे? परंतु तेने शीलवतत्वपणे देवायुनो बंधहेतु कहेवो, एम तत्वा टीकामांहे कयुं . ___ हवे नामकर्मना बंधहेतु कहे . सुरगत्यादिकने त्रीश शुजनामकर्मप्रकृतिना बं. धहेतु होय ते कहे . सरल एटले कपटरहित जेवो हृदयमांहे होय तेवो आचार बोले, कोश्ने पण कूमां तोल, मापें करी उगे नहीं, परवंचनबुधिरहित, शकिगारव, रसगारव, शातोगारव रहित, पापनीरु, परोपकारी, सर्वजनप्रिय, क्षमादिगुणयुक्त, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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