SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 426
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. ज्ञानावरणीय पाँच, दर्शनावरणीय चार, वेदनीय एक, यशः कीर्त्ति एक, अंतराय पांच, ए सत्तर प्रकृतिनो बंध होय, ते को• ॥ ११ ॥ ॥ हवे दशमा गुणठाणे सोल प्रकृतिनो अंत करे, ते कहे. ॥ चन दंसणुच्च जस ना, ण विग्ध दसगंति सोलसुते ॥ तिसु साय बंध बेर्ड, सजोगि बंधंत अणं तो ॥ बंधो सम्मत्तो ॥ १२ ॥ अर्थ - चदंसणुच्च के० चार दर्शनावरणीय, अने पांचमुं उच्चैर्गोत्र, बहुं जस के० यशः कीर्त्तिनामकर्म, नाण के० पांच ज्ञानावरणीय, विग्घ के० पांच अंतराय, दसगंति के० 50 ए दश प्रकृति एवं सर्व मली सोलस के० सोल प्रकृतिना बंधनो उच्छे के० विछेद होय छाने तिसु के० त्रण गुणठाणे सायबंध बेर्ड के० एक शातावेदनीय बंध बे, ते पण बेदाय. एटले सजोगीबंधंत के० सयोगी गुणठाणाने तें शातावेदनीयना बंधनो पण अंत तो के० अनंतो करे ॥ बंधोसम्मत्तो के० बंधाधिकार संपूर्ण थयो ॥ इत्यर्थः ॥ १२ ॥ पांच निद्रा विना चचुरादिक दर्शनावरणीय चार प्रकृति, पांचमुं उच्चैर्गोत्र, बहुं यशः कीर्त्तिनाम, तथा पांच ज्ञानावरण ने पांच अंतराय, ए दश प्रकृतिने ज्ञान वि नदशक कहीयें. एवं सोल प्रकृतिनो बंधकषाय प्रत्ययिक बे, तो अगले गुणठाणे वीतराग दशायें कषायोदय न होय, ते जणी बंधाय नहीं, तेथी अहींयां बंधविच्छेद थाय. तेवारें शेष एक शातावेदनीयज एक उपशांतमोह, बीजो क्षीणमोह, अने त्री जो सयोगी केवली, ए त्रण गुणठाणे योग बे तेथी योगप्रत्ययें करी बंधाय, अने योगनिरोधें एनो पण बंध विच्छेद होय. जिहां जेना कारणनूत मिथ्यात्व श्रविरत्यादिक बंध हेतु तथा विशिष्टबंधाध्यवसाय तत्प्रायोग्य टले, तिहां तिहां ते ते प्रकृतिनो बंध विछेद थाय. ज्यां सुधी कारणनो अंत न होय, त्यां सुधी कार्यनो पण अंत न होय, तथा सयोगी गुणठाणे जे बंधनो अंत होय, ते अंत अनंत जाणवो. एटले ए बंधन एवो करे के तेना तनो त नावे, एवो करे, माटे अनंतो को जे जणी वलतो को वारे ते जीवने बंध करवो न थाय. एरीतें श्रीवीर जिनेश्वरें चउद गुण ठाणे कर्मबंध विच्छेद कस्यो तेने कार्थे नमस्कार होय. इति श्रेयः ॥ एम चौद गुणश्रीने कर्मप्रकृतिनो बंधाधिकार पूर्ण थयो. ॥ १२ ॥ ५१ ४०१ गोत्र एक, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy