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________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ६६ए चार मूलप्रकृति, घातिनी जे. एना अजघन्य रसबंधने विष चार नांगा होय, केम के ए चार पापप्रकृति नणी विशुद्धियें मोहनीयनो नवमा गुणगणाने प्रांत अने शेष त्रण कर्मनो दशमा गुणगाणाने प्रांतें जघन्य रस बंधाय, शेष सर्व स्थानकें अजघन्य रस बंधाय, तेने विषे पण चार नंग जाणवा. ते आवी रीतें के, जेणे जघन्यरसबंध नथी लह्यो, तेने अजघन्य रसबंध अनादि, जे जघन्यरस बांधी वली श्रेणीथी पमतां अजघन्य रस बांधे तिहां सादि, अनव्यने अजघन्य रसबंध अनंत जाणवो, अने नव्यने अजघन्य रसबंध सांतपणे जाणवो. ए चार कर्मना अजघन्य बंध विना शेष त्रण बंधने विषे सादि अने सांत, ए बे नांगा लाने. ___ गोएविहो के गोत्रकर्मनो अनुत्कृष्ट तथा अजघन्य, ए बे रसबंधने विषे श्मोचनहा के एमज चार जंग होय. ते कहे जे. तेमध्ये नीच्चैर्गोत्रनो जघन्य रसबंध सातमी नरक पृथवीना नारकी ग्रंथिन्नेद करी मिथ्यात्वने बेहले समयें बांधे, ते स्थानक जे नथी पाम्या तेने अनादिनो अजघन्य रस बंध , अने जेणे एक समयमा जघन्य रस बंध करी फरी अजघन्य रस बांधे तेने सादि, अनव्य जीव ते स्थानक क्यारे पण नहींज पामशे, तेथी तेने अनंत, तथा नव्य जीव जघन्य रसबंध करशे तथा रसबंध विछेद पण करशे, तेथी तेने सांत. तेमज उच्चैर्गोत्रनो विशुक्रिये उत्कृष्ट रसबंध, दशमा गुणगणाने प्रांतें होय. ते विना बीजा सर्व अनुत्कृष्ट रसबंध जाणवा. तिहां जेणे श्रेणी नथी करी, तेणें उत्कृष्ट रसबंध नथी कस्यो. तेने अनुत्कृष्ट रसबंध अनादि अने श्रेणीथी पडतां उत्कृष्ट रस बांधी फरी अनुत्कृष्ट रस बांधे, तिहां सादि. अनव्यने अनुत्कृष्ट रसबंध अनंत अने नव्यने अनुत्कृष्टनो सांत, एम चार नेद जाणवा, अने शेष जघन्य तथा उत्कृष्ट, ए बे एक समयना मात्रै एनेविषे सादि अने सांत ए बे नांगा होय. एम सुमतालीश ध्रुवबंधिनी प्रकृति तेम वर्णादिक चार शुजाशुल गणतां एकावन्न उत्तरप्रकृतिनो जघन्य, अजघन्य, उत्कृष्ट अने अनुत्कृष्ट, एम चार प्रकारना बंधना सादि, अनादि, सांत अने अनंत, एमांना जांगा जिहां जे संजवे, तिहां ते कह्या. ॥ ४ ॥ सेसंमि उदा ॥ अनुनागबंधो सम्मतो ॥ अथ प्रदेशबंधे आदावौदारिकादिवर्गणामाद ॥ग जुग णुगाइ, जा अनवणंत गुणि आणू ॥ खंधा उरतो चि अव, ग्गणान तहअगदणं तिरिया ॥५॥ अर्थ-सेसं मिऽहा के एथी शेष रही जे औदारिक, वैक्रिय धने आहारक, ए त्रण शरीर तथा एज त्रण शरीरनां अंगोपांग त्रण, संस्थान बक्क, संघयण बक, पांचजाति, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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