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________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ G४५ श्रादिक प्रकृतिर्नु, कर्मप्रकृतिनुं दल, प्रथम समये पक्ष्योपमना असंख्यातमा जाग प्रमाण स्थितिखंड तेने अंतरमुहर्ते उकेरीने परप्रकृतिमध्ये संक्रमावे. एम बीजे समयें बीजो स्थितिखंग करी तेनो केटलोएक नाग परप्रकृतिमध्ये संक्रमावे तथा केटलोएक पोतानी हेग्ली स्थितिमध्ये संक्रमावे, पण परप्रकृतिमध्ये जेटबुं संक्रमावे, तेथकी थापणी हेग्ली स्थितिमध्ये जे संक्रमावे ते असंख्यातगुणुं जाणवू. एम समय समय जे स्थितिखंड करे, ते पाबला पाउला स्थितिखंमनी अपेक्षायें विशेष हीनदलनी अपेक्षायें असंख्यातगुणुं होय. अने संक्रमाक्वाने समय पण आपणी हेली स्थितिमध्ये असंख्यातगुणुं संक्रमावे, तथा परप्रकृतिमध्ये विशेष हीन हीन घटतुं घटतुं संक्रमावे, एम विचरम समय लगें संक्रमावे. अने बेहले समयें तो श्रापणी स्थितिशेषने बनावें सर्व दल परप्रकृतिमध्ये संक्रमावे, तेनुं नाम सर्वसंक्रम कहीं बैयें. एम उछलना संक्रमें करी आवलिकामात्र मूकी बाकी सर्व अनंतानुबंधीया खपावे अने जे श्रावलिमात्र रहे, तेने स्तिबुकसंक्रमे करी वेद्यमान प्रकृतिमध्ये संक्रमावी खपावे, ते अनंतानुबंधीया विसंयोज्या कडेवाय, ते अंतरमुहर्त पनी शनिवृत्तिकरणने बेहडे शेष कर्मनां स्थितिघात, रसघात अने गुणश्रेणी न होय. केम के ते जीव खनावस्थज रहे, सहज अवस्थायें रहे. ए रीतें अनंतानुबंधीनी विसंयोजनानी रीत कही. हवे दर्शनमोहनीयत्रिकनी उपशमनानो प्रकार लखीये वैयें. तिहां मिथ्यात्वनी नपशमनानो मिथ्यात्वीने तथा दायोपशमिक सम्यकदृष्टि, ए बेहुने होय. अने सम्यक्त्व तथा मिश्र, ए बेनी उपशमना तो दायोपशम सम्यक्दृष्टिनेज होय. तिहां मिथ्यात्वीने तो ग्रंथिन्नेद करतां प्रथम उपशम सम्यक्त्व जपजाववावालाने मिथ्यात्वनी उपशमना होय, ते प्रकार कहीयें बैयें. को संझी पंचेंजिय जीव, सर्व पर्याप्तियें करी पर्याप्तो करणकालथकी पूर्वे अंतरमुहर्त्त काल लगें समय समय प्रत्ये अनंतगुणावधती विशुछिये प्रवर्ततो एवो अन्नव्यसैहिक जीवनी विशुद्धिनी अपेक्षायें अनंतगुणविशुछिमंत एवो मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान अने विनंगज्ञान, ए मांहेला अनेरे साकारोपयोगें उपयुक्तथको मनादिक त्रण योगमाहेला कोइ पण अनेरे योगें वर्त्ततो जघन्य परिणामें तेजोलेश्यायें अने मध्यमपरिणामें पद्मवेश्यायें तथा उत्कृष्टपरिणामें शुक्ललेश्यायें वर्ततो मिथ्यादृष्टि चारे गतिमांहेलो कोइ पण गतिनो जीव कांइएक ऊंणी एक कोमाकोमी सागरोपमनी स्थिति, साते कर्मनी थाकती रही होय, इत्यादिक सर्व पूर्वोक्त प्रकारे ज्यांसुधी यथाप्रवृत्तिकरण अने अपूर्वकरण, ए बेहु मिथ्यात्व उपशमाववाने परिपूर्ण करे, तिहां लगें कहे. पण एटयुं विशेष जे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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