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कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. १
३६० श्रयीने होय. शरीर, अंगोपांग, बंधन, संघातन, संघयण, संस्थान, वर्ण, गंध, रस अने स्पर्श. ए समस्त विशेष जे कह्यां, ते शरीरपुजलने विषे होय. तेथी एनां हेतुजूत कर्म, ते पुजल विपाकी कहीये. तथा अहीं शरीरना वर्णादिक, लोकव्यवहारनयथी लेवा, अन्यथा निश्चयनयमतें तो औदारिकादिकशरीर पुजलें पांच वर्ण, बे गंध, पांच रस, आठ स्पर्श, एवं वीश गुण होय. पण अहीं जे वर्णादिक लोकव्यवहारें कहेवाय ते उत्कट वर्णादिक पर्याय हेतुनूत नामकर्म, तेनी प्रकृति कही, तेमाहे एक नीलो, बीजो कालो, ए बे वर्ण; तथा एक पुगंध, एवं त्रण तथा तिक्त अने कटु ए बे रस, एवं पांच; तथा गुरु, खर, रूद अने शीत, ए चार स्पर्श; ए नव प्रकृति लोकने विषे अनिष्ट होय. ते माटे अशुजबे तेथी एना देतचूत कर्मनुं नाम पण अशुन्न जाणवू, जे कारण माटे संक्शे एनो कदरस वधे, अने विशोधे घटे, तेथी ए नव, पापप्रकृतिमध्ये लेखवीयें, तेथी ए अशुजनवक कयु. पाप प्रकृतिमाहे सामान्य वर्णादि चार अशुज कह्यां . अने अहीं विशेषे नव कह्यां.
ए नव नेदथी शेष रह्या अगीआर नेद, ते शुज बे, सर्व लोकने इष्ट होय, ते नणी तेनुं निमित्तनूत जे कर्म, ते पण विशुळं तेनो मिष्टरस वधे, ते माटे शुज पु. एयप्रकृति कही. ते अगीआरनां नाम कहे . श्वेत, पीत ने रक्त, ए त्रण वर्ण. एक सुरनिगंध. कषायल, आम्ल ने मधुर, ए त्रण रस. लघु, मृदु, स्निग्ध अने जस, ए चार स्पर्श. एवं अगीधारने विशेषनये पुण्यप्रकृति कहीये. ए वर्णादिक वीश नामनी प्रकृति कही ॥४॥
॥ हवे आनुपूर्वी नामकर्म कहे .॥ चनदगश्वणुपुत्री, गई पुविज्गं तिगं निआउजुअं ॥
पुबीनद वक्के, सुह असुह वसुदृ विदग ग॥४३ ॥ अर्थ-चउहगश्च के चार नेद गतिनी पेरें, अणुपुत्री के अनुपूर्वी नाम . गश्पुवीधुगं के गति ने श्रानुपूर्वी, ए बेहु खेतां द्विक कहेवाय. अने तिगंनिआउजुआं के जे वारें एने पोताना आयुसहित लहिये, तेवारे आनुपूर्वीनुं त्रिक थाय. पुवीउदउँवक्के के श्रानुपूर्वीनो उदय ते विग्रहगतियें, सुह के शुज चाल, श्रसुद के अशुन चाल, वस के बलदनी पेरें, उम्र के उंटनी पेरें, ए बे प्रकारे विहगगई के० विहायोगतिनामकर्म ॥ इत्यक्षरार्थः ॥४३॥ , चार नेदें गतिनी पेरें श्रानुपूर्वीनामकर्म . एक नरकानुपूर्वी, बीजी मनुष्यानुपूर्वी, श्रीजी देवानुपूर्वी, चोथी तिर्यंचानुपूर्वी. ए चार आनुपूर्वीनाम बे. श्हांथी सम
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