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संग्रहणीसूत्र.
परिक गप्पतं | सघाएंगुल असंखनाग लहू ॥
अर्थ- पक्षी जे गृद्धादिक ते संमूर्तिम तथा गर्जज ए युग के० बे प्रकारना. तेनुं शरीर धणुपतं के० नव धनुष्यनुं जावं. ए समस्त शरीरनुं उत्कृष्टुं प्रमाण सामान्य विशेषे कयुं; हवे लहू के० जघन्यथी सव्वाणं के० सर्वनुं एटले एकेंद्री, बेंद्री, तेंजी, चौरेंद्र ने पंचें तिर्यंचनुं शरीर ते अंगुल असंख जाग के० एक अंगुलनो अंसख्यातमो जाग ते उपपात समये शरीरपर्याप्ति वेलायें होय.
हवे प्रसंगागत वैक्रिय अवगाहनानुं प्रमाण कहे बे. वैक्रिय शरीर बादर पर्याप्तो वायु कायनो जीव करे, छाने कोइक पर्याप्तो संख्यातायुवालो गर्जज पंचेंद्रीय होय ते पण करे, तेमां वायु कायनो जीव तो जघन्य अने उत्कृष्टो गुलनुं श्रसंख्यातमुं जाग करे, अने पंचेंद्री तिर्यंच तो जघन्यथी गुलनुं असंख्यातमुं जाग करे, तथा उत्कृष्टो नवसे योजन सुधी करे. एटले तिर्यंचनुं अवगाहना द्वार कयुं.
हवे उपपात विरह ने चवन विरह ए वे द्वार कहे बे. तेमां एकेंद्री प्रति समये उपजे अने चवे बे; माटे एने ए द्वार संजवे नही; माटे बेंडी आदे दे जीवोना उपपात चवननो विरहकाल कहे बे.
विरहो विगला सन्नी जम्ममरणेसु अंतमृदु ॥ २७३ ॥ गन्ने मुहुत्त बारस ॥ गुरु लहु समय संखसुर तुल्ला ॥
अर्थ- वेंडी, तेंडी ने चौरेंडी ए त्रण विकलेंडी ने सन्नी के० संमूर्तिभ पंचेंद्री तिर्यंच, एनो जम्ममरणेसु के० जन्म मरण याश्री विरहकाल प्रत्येके अंतमूहु के० अंतरमुहूर्त्त गुरु के ऊत्कृष्ट जाणवो, अने गनेसु के० गर्भज पंचेंद्री तिर्यचनो उपपात चवन विरह काल उत्कृष्ट मुदुत्तवारस के० बार मुहूर्त्तनो जावो. अने सर्वत्र लहु के० जघन्य विरहकाल समज के० एक समयनो जावो. छाने ए बेंद्रियादिक एक समये उपजे तो संखसुर तुल्ला के० संख्याये देवताने तुल्य जाणवा, एटले एक, त्रण, संख्याता श्रसंख्याता सुधी उपजे तथा मरण पामे.
॥ हवे एकेंद्रीने उपजवा मरवानी संख्या कहे . ॥ समय मसंखिता । एगिंदिय हंतिय चवंति ॥ काइ अता ॥ इक्तिका जविजं निगोया संखो जागो ॥ प्रांत जीवो चयइ एइ ॥ २७५ ॥
अर्थ
समय के० प्रतिसमय एटले समय समय प्रत्ये एगिंदिय के० एकेंद्री ते संखिया के श्रसंख्याता हुंतिय के० उपजे
ने चवंति के० चवे. ॥१७४॥
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२७४ ॥ ॥ निञ्चम
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