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________________ कर्मविपाकनामे कर्मग्रंथ. १ ३८७ - जिया के जिनपूजादिकनो विग्धकरो के० विन करनार, पूजा निषे. धतो, हिंसाइपरायणो के० हिंसादिक श्राश्रवने विषे तत्पर थको, अजय विग्धं के० अंतरायकर्म उपा. श्यकम्मविवागो के० एणी पेरें कर्म विपाक एवे नामें ग्रंथ, ते लिहि देविंदसूरी हिं के० तपागच्छाधिराज श्री देवेंद्रसूरीश्वरें लख्या ॥ इत्यक्षरार्थः॥ ६१ ॥ श्री जिनप्रतिमानी पूजानो निषेधनार, पूजायें पुष्प, फल, जलादिकना अनेक जीवनो घात थाय, ते जणी मलिनारंजी, ते गृहस्थने पण देय बे. जेम कोइएक मूर्ख, कटुकौषध पान साजा मनुष्यनी पेरें मांदाने पण निषेधे, तेनी शातानो अंतराय करे, ते कुमति जीव, अनारंजी साधुनी पेरें मलीनारंजरोगक्षयकारी श्रौषधप्राय पूजादिक प्रतिमारंभ निषेधतो, परना हितनुं विघ्न करतो, अंतरायकर्म बांधे. तथा पोतानी मतियें करी जिनमत विपरीतार्थ प्ररूपतो, अनंत संसार वधारे, तेवारें अनंत जीवनो घातक थाय तथा बीजाने पण उन्मार्गे प्रवर्त्तावी अनंत जीवघात करे, तेथ अनुबंधहिंसावंत तथा अनुबंध मृषाभाषी तीर्थंकर दत्तमार्गप्रवर्तक इत्यादिक अनुबंधेंढार पापस्थानकनो सेवनार जीव, अंतरायकर्म बांधे. तथा साधुने दानलाजादिकन अंतराय करतो, मोक्षमार्ग हणतो, एवो जीव, पण तेमज जाणवो. एपेरें कर्मप्रकृति, पंचसंग्रहादिक प्राचीनकर्मग्रंथ, सविस्तर जोड़ मुग्धबुद्धि, सं परुचि जीवने समजाववा सारुं तथा श्रात्माने पण परहितकरणरूप करुणाजन्य निर्जरा अर्थे थोडे अक्षरें करी, जेम विशेषज्ञान पामे, तेम लख्यो, पुस्तकें चढाव्यो, ते कहे. परम गुरुगछाधिराज शिथिलाचार निवारक, तपाबिरुदधारक, जहारक श्री १००८ श्रीजगचंद्रसूरीश्वर, पट्टप्रजावक, श्रीदेवेंद्रसूरिश्वरें तपगठनायकें लख्यो, पुस्तकें चढायो. ॥ अथ प्रशस्तिः ॥ इति कर्मव्यथोमा थिकर्मग्रंथार्थसंविदे ॥ गुरूपा स्तिरताः संतो, जवंतु जव निस्पृहाः ॥ १ ॥ नाद्य विद्याविवित्यै, साद्यनंतपदातये ॥ श्राद्यः कर्मविपाकाऽर्थो, जाव्यो जावविशारदैः ॥ २ ॥ छं कर्म विपाकपाकहतयोपाका हितायंतवैः, पाकनापरनामसू रिसुरुपगूढं ततः ॥ एतत्कर्म विपाकस च्चिदशनिं सात्मीकुरुध्वं जनाः ! इमेध्याज्ञान गिरिछिंदैकवियशः, सोमोक्तया सद्दिशा ॥ ३ ॥ कर्म विपाकटबार्थो ऽन्वर्थः प्राथ्यर्थि जिः स्वगुरुनक्ताः ॥ प्रथमादर्शे लिखिता मुनिना कल्याणसोमेन ॥ ४ ॥ प्रत्यक्षगणनया ग्रंथमानं ससूत्रं ॥ इति श्रीबालावबोधः प्रथमकर्मग्रंथसहितः संपूर्णः ॥ 5 " Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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