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________________ ४२४ कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. कर्मनी, एक वेदनीय, एक नीच्चैर्गोत्री जाणवी. ए बहोंतेर प्रकृतिनो पण त्यां उदय नहीं, तेथी बहोंतेर प्रकृतिनी सत्ताविछेद थाय ॥ ३३ ॥ बिसयरि ख अ चरिमे, तेरस मणुअ तसतिग जसाइज ॥ सुलग जिणुच्च पणिदिअ, सायासा एगयर ॥ ३४ ॥ अर्थ- बिसयरिखध के ए बहोतेर प्रकृतिनो क्षय होय. चरिमे के वली बेहले समयें तेरस के तेर प्रकृतिनी सत्ता विछेद थाय, ते कहेले. मणुश के मनुष्यत्रिक, तस के त्रसत्रिक, ए बे तिग के त्रिक जाणवा. जस के यशःकीर्तिनाम, श्राऊं के श्रादेयनाम, सुजग के सौनाग्यनाम, जिण के जिननाम, उच्च के उच्चैर्गोत्र, पणिं दिध के पंचेंजियजाति, अने सायासाएगयर के शाता अशातामांहेली एक उदयवती प्रकृतिनो विछेद होय. ॥ ३४ ॥ ते बहोतेर प्रकृति थापणुं दल अन्यसजातिय उदयवती प्रकृतिमाहे स्तिबुक संक्रमे, संक्रमावी खपावे, जेम मनुष्यगति उदयवती बे, तेमध्ये शेष त्रण गतिनुं दलिक संक्रमावी खपावे, तेम बीजी पण यथायोग्य जाणवी. स्तिबुकसंक्रम ते कहीयें जेम पाणीनो पर्पोटो सहेजें पाणीमांहे संक्रमे, तेम जे सहेजें स्व स्तोकदलिक परप्रकृतिमाहे संक्रमे, पण जीववीर्ये न संक्रमे तेथी ए स्तिबुकसंक्रमण करणमांहे गएयो, तेथी ते अयोगीगुणगणाने बेहले समय मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी अने मनुष्यायु. ए मनुष्यत्रिक, त्रसनाम, बादरनाम अने पर्याप्तनाम, ए त्रसत्रिक. यशःकीर्तिनाम, आदेय. नाम, सौजाग्यनाम, तीर्थंकरनाम, एच्चैर्गोत्र, पंचेंजियजाति नाम, अशाता ने शाता, ए बे वेदनीयमांहेथी जेनो उदय होय, ते एक लेवी. एवं तेर प्रकृतिनी सत्ता होय. तेमां एक वेदनीयनी, एक आयुनी, एक उच्चैर्गोत्रनी अने शेष दश प्रकृति नामकमनी रहे. ए सत्तरी प्रमुख शास्त्रने विरुक जे जे जणी त्यां बादर नामकर्मनी प्रकृ. तिनां सत्तास्थानक कह्यां, ते मध्ये श्राप प्रकृति तथा जिननाम सहित होय, तेवारें नव प्रकृतिरूप सत्ता स्थानक कडं, पण दश प्रकृतिरूप सत्तास्थानक न कयु. ए अपेक्षायें अही ते केम संनवे ? तथा बार उदयवती प्रकृति स्तिबुक संक्रम विना खपावे अने मनुष्यानुपूर्वीने उदयें वक्रगति होय ते पण अहीं नहीं होय तेणे स्तिबुकसंक्रम विना केम खपावे ? तेणे अहींओं को आचार्य मनुष्यानुपूर्वीनो वि. छेद पण पुचरिमसमय माने जे तेने मतें अयोगीगुणगणाना बेहला बे समय, तेमध्ये पहेले समय तहोंतेर प्रकृति खपावे थने बेहले समय बार प्रकृति खपावे. अहीं व्यवहारनय लेवो. अने निश्चयनयें तो सिगमन समयेंज बे तेहिज मतांतरें श्रागली गाथायें देखाडे बे. ॥ ३४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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