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________________ कर्मस्तवनामा द्वितीय कर्मग्रंथ. ४२३ अने अजोगिचरिमे के अयोगीगुणगणे पण उचरमसमयलगें पंचाशीनी सत्ता होय, त्यां देव के देवहिक, खगर के खगतिहिक, गंध के गंधछिक, सुगं के० ए त्रपछिक, फासक, के स्पर्श थार, वम के पांच वर्ण, रस के पांच रस, तणु के० शरीर पांच, बंधण के बंधन पांच, संघाय के संघातन पांच, पण के० ए सौं पांच पांच, कहेवा. निमिणं के निर्माणनाम. एवं चालीश प्रकृति थ ॥ इत्यदरार्थः॥३५॥ तेवारे तेरमे सयोगीगुणगणे तथा चौदमा अयोगीकेवलीगुणगणाना बेहला समयना उपरला समय लगें वेदनीय बे, नामनी एंशी, आयुनी एक अने गोत्रनी बे, ए पंचाशी प्रकृतिनी सत्ता रहे; त्यां अयोगीगुणगणाना शंतना समयथी पहेलो जे समय तिहां अनुदयवती, बहोतेर प्रकृति खपावे, ते प्रकृतिनां नाम कहेजे. देवगति, देवानुपूर्वी, ए देवधिक. शुनविहायोगति भने अशुजविहायोगति, ए खगतिछिक, सुरजिगंध अने पुरनिगंध, ए गंधछिक, ए त्रण आगल ठिक शब्द जोमीयें, तेवारें ब प्रकृति थाय, आठ स्पर्श, पांच वर्ण, पांच रस, पांच शरीर नाम प्रकृति, तेमज ते नामे औदारिकादिक पांच, बंधननी प्रकृति, तथा औदारिकादिक पांच संघातननी प्रकृति, वर्णादिक पांचथी श्रागल जेटला शब्द कह्या, ते सर्वनी आगल पण शब्द जोडीयें तथा निर्माणनाम, ए चालीश प्रकृति थ॥३२॥ संघयण अथिर संग, ण बक्क अगुरुवहु चन अपजातं ॥ सायं च असायं वा, परित्तुवंगातिग सुसर निअं॥३३॥ अर्थ- संघयण के संघयण , अथिर के अस्थिरषट्रक, संगण के संस्थान ब, बक के ए त्रण बक जाणवां. गुरुलहुचउ के गुरुलघुचतुष्क, अपात्तं के अपर्याप्तनाम, सायंच के शातावेदनीय, असायंवा के अथवा अशातावेदनीय, एबे प्रकृतिमाहेथी एक लेवी. परित्त के प्रत्येकत्रिक, उवंगातिग के उपांगत्रिक, सुपर के सुखरनाम, निरं के नीच्चैर्गोत्र, एवं बहोंतेर प्रकृति थ ॥ इत्यदरार्थः ॥ ३३ ॥ पूर्वती गाथामां कहेली चालीश प्रकृति तथा संघयण, अस्थिरनाम, अशुननाम, दो ग्यनाम, पुःखरनाम, अनादेयनाम, अयश कीर्तिनाम. ए अस्थिरषट्क, संस्थान, ए त्रण पद बागल बक जोमीयें. गुरुलघु, उपघात, पराघात, अने उश्वास ए थगुरुलघुचतुष्क कहीयें. अपर्याप्तनाम, शाता अथवा अशाता, ए बे वेदनीयनी प्रकृतिमांहेली जे उदय होय, ते विना बीजी एक प्रकृति अनुदयवती होय, ते खपावे. प्रत्येकनाम, स्थिरनाम, शुजनाम, ए प्रत्येकत्रिक. औदारिक, वैक्रिय ने आहारक, ए उपांग त्रण, सुस्वरनाम, नीचैर्गोत्र, एवं बहातेर प्रकृति थ तेमांहे सीत्तेर नाम. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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