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________________ ६४ए शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ अने आहारकांगोपांग, ए आहारकटिक, निरयुजोयगं के० नरकगति, नरकानुपूर्वी, ए नरकठिक तथा उद्योतनाम अने आतपनाम, ए उद्योतहिक, ए सर्व एकवीश प्रकृतिनो सततबंध, अंतर मुहर्त्त लगें मिथ्यात्व अनेसास्वादनगुणगणे होय. अहीं आहारककिनो बंध मिथ्यात्व तथा सास्वादन, ए बे गुणगणे न जाणवो, तथा थिर के एक स्थिर, बीजी सुन्न के शुन, त्रीजी जस के० यशःकीर्ति, थावरदस के० स्थावर दशको, ए तेर प्रकृति पण सप्रतिपदमिथ्यात्वे बंधाय, तेथी एनो अंतरमुहूर्त लगें उत्कृष्टो सततबंध जाणवो. तथा नपुश्ती के नपुंसकवेद अने स्त्रीवेद, ए बे मोहनीयनी प्रकृति पण अंतरमुहूर्त अंतरमुहूर्त परावर्ते मिथ्यात्वें बंधाय. एवं त्रीश प्रकृति थ तथा उजुअल के हास्य अने रति तथा शोक अने अरति, ए बे युगलनी प्रकृति पण बंधविरोधिनी नणी बहा गुणगणा लगें परावर्ते अंतर मुहर्त प्रमाण बांधे, जो पण सातमे अने बाग्मे गुणगणे निःप्रतिपक्षपणे हास्य अने रति, ए एक युगल बंधाय , तो पण ए बे गुणवणानो काल अंतर मुहर्त्तनो होय. तथा मसायं केन्शातावेदनीय पण शातावेदनीयने परवर्ते अंतर मुहर्त्त प्रमाण, बहा गुणगणासुधी बंधाय. ए एकतालीश प्रकृतिनो एक समयथी मामीने उत्कृष्टो अंतर मुहर्त लगें सततबंध होय. जे जणी ए श्रध्रुवबंधिनी परावर्त्तमान प्रकृति बे ते बीजी पोतानी विरोधिनी प्रकृतिना बंधसामग्रीने सन्नावें अंतर मुहुर्त परावर्ते बंधाय. ___ एमां स्थिर, शुज अने यश, ए त्रणनी विरोधिनी अस्थिर, अशुन अने अयश, ए त्रणनो बंध हा गुणगणा सुधी होय. तिहां लगें परावर्ते अंतरमुहूर्त पर्यंत सततबंध जाणवो. श्रागले गुणगणे जो पण ए विरोधिनी प्रकृतिनो बंध नथी, तो पण दशमा गुणगणा लगें केवल यश कीर्तिनो बंध बे. ते पण अंतर मुहर्त लगें जाणवो. तेथी सर्व गुणगणे एकज अंतरमुहर्त पर्यंत बंध होय. ॥१॥ समया दंत मुहुत्तं, मणु उग जिण वश्र नरखुवंगेसु ॥ तित्ती सय रा परमो, अंत मुहुबहुवि आउ जिणा ॥६॥ तिस्थितिबंधः॥ अर्थ- ए पूर्वोक्त एकतालीश प्रकृतिनो समयादंतमुहत्तं के एक समयथी लश्ने अंतर मुहूर्त लगें सततबंध होय. तेमज मणुग के मनुष्यहिक, जिण के जिननाम, वर के वनषननाराचसंघयण, उरबुवंगेसु के औदारिकांगोपांग, ए पांच प्रकृतिनो तित्तीसयरापरमो के तेत्रीश सागरोपम उत्कृष्ट सततबंध होय, तथा अं. तमुहूलहूवि के अंतर मुहूर्त प्रमाण जघन्यथी पण सततबंध थाउजिणा के चार थायुःकर्मनी प्रकृति अने पांचमुं जिमनामकर्मनुं पण होय. ॥ इत्यक्षरार्थः ॥ ३ ॥ ८२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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