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सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६
७३५ पण एकज नांगो ते दशमा गुणगणा लगें होय. तथा बंधोचरमेवि के आगल ज्ञानावरणीय अने अंतरायना बंधने अन्नावे पण जदयसंतंसाहुँतिपंचेव के पांचनो उदय अने पांचनी सत्तारूपबीजो नांगो अगीआरमे अने बारमे गुणगणे जाणवो. ॥७॥
हवे दर्शनावरणीय कर्मने विषे उत्तरप्रकृति श्राश्रयी बंधादिक स्थानकनी प्ररूपणाने कहे बे.
॥अथोत्तर प्रकृतिराश्रित्य बंधस्थान प्ररूपणार्थमाह. ॥ बंधस्सय संतस्सय, पगहाणा तिन्नि तुल्लाइं॥
उदय हाणा ज्वे, चन पणग दंसणावरणे ॥७॥ अर्थ-दर्शनावरणीय कर्मने विषे बंधस्सयसंतस्सयपगहाणा के0 बंधप्रकृतिनां स्थानक तथा सत्ताप्रकृतिनां स्थानक पण तिन्नि के त्रण त्रण तुझाई के तुल्य , एटले बंधनां स्थानक पण त्रण डे,अने सत्तानां स्थानक पण त्रण बे, माटें तुल्य डे, ते कहे जे. एक नव प्रकृतिनुं स्थानक, बीजुं थीणहीत्रिक हीन करतां ब प्रकृति, स्थानक, त्रीजुं निजा अने प्रचला हीन करतां चार प्रकृतिनुं स्थानक, ए रीतें त्रण स्थानक जाणवां. तिहां नव प्रकृतिनुं बंधस्थानक पहेले तथा बीजे गुणगणे लाने, ते अनव्यने पहेले गुणगणे अनादि अनंत होय, अने नव्यने अनादि सांत होय, तथा सम्यक्त्वी जीव मिथ्यात्वे जाय तेनी अपेक्षायें सादि सांत पण होय, ते जघन्य तो अंतरमुहर्त्त अने उत्कृष्टो तो देशोन अई पुजलपरावर्त काल पर्यंत जाणवो. तथा बीजें ब प्रकृतिनुं बंध स्थानक, मिश्रगुणगणाथी अपूर्वकरणना प्रथम नाग लगें होय, ते जघन्य तो अंतरमुहूर्त अने उत्कृष्टो तो एकसो बत्रीश सागरोपम जाजेरा लगे रहे, जे नणी सम्यक्त्वं बाशक सागरोपम रही, पनी अंतरमुहर्त मिश्रगुणगणे श्रावी, वली बाश सागरोपम सम्यक्त्वें रही, ते पबी कोशएक जीव, मिथ्यात्व पडिवजे, तेवारें नवने बंध स्थानकें जाय, अथवा दपकश्रेणी पविजे, तो ते चारने बंधस्थानकें जाय, तथा चार प्रकृतिनुं बंधस्थानक निसा प्रचलानो बंधविछेद करी थाउमा गुणगणाना बीजा नागथी मामी दशमा गुणगणा लगें होय, ते जघन्यथी तो एक समय होय, जे जणी कोइएक जीव भाउमा गुणगणाने बीजे नागें चार 'प्रकृतिनो बंध करी मरण पामी देवता थाय, तिहां ब प्रकृतिनो बंध करे, ए अपेक्षायें लेवु, तथा उत्कृष्टो तो अंतरमुहर्त काल जाणवो. एम त्रण बंधस्थानक कह्यां.
हवे त्रण सत्तास्थानक कहे . तिहीं नवनुं सत्तास्थानक, अनव्यनी अपेक्षायें श्रनादि अनंत अने नव्यनी अपेक्षायें अनादि सांत, ए स्थानक उपशमश्रेणीनी अपेदायें पहेला गुणगणाथी मांडी अगीधारमा गुणगणा लगें होय, श्रने क्षपकश्रेणीनी अपे
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