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सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ । बंधोदयसंतकम्माणं के बंध, उदय अने सत्ताना नांगा अनुक्रमें गुणगणे होय, एटले मूलप्रकृति श्राश्रयी बंधोदय सत्ता संवेध स्वामी कह्या.॥५॥ __ हवे उत्तरप्रकृति श्राश्रयी बंध, उदय अने सत्ता प्रकृति स्थानक, संवेध कहीयें बैयें. तिहां प्रथम आठ कर्ममाहे जे कर्मनी जेटली उत्तर प्रकृति बे, ते कहे बे,
॥अथोत्तरप्रकृतिराश्रित्य संवेधस्वामित्वं माह ॥ पंच नव अलि अहा, वीसा चनरो तदेव बायाला ॥
उलिय पंच य नणिया, पयडी आणुपुवीए ॥६॥ अर्थ-झानावरणीयनी उत्तरप्रकृति, पंच के पांच, दर्शनावरणीयनी उत्तरप्रकृति, नव के० नव, वेदनीयनी उत्तरप्रकृति, पुलि के बे, मोहनीयनी उत्तरप्रकृति, अहावीसा के अहावीश, आयुनी उत्तरप्रकृति, चउरो के चार, तहेव के तथा वली तेमज नामनी उत्तरप्रकृति, बायाला के बेंतालीश, गोत्रनी उत्तरप्रकृति, पुलिय के बे अने अंतरायनी उत्तरप्रकृतिना पंचय के पांच नेद, नणिया के कह्या बे. पयडीउधाणुपुवीए के ए रीतें श्राप मूलप्रकृतिना उत्तर नेद, अनुक्रमें जाणवा. तिहां नामकर्मनी बेंतालीश प्रतिमध्ये चौद पिंमप्रकृतिना नेद करतां पांशठ थाय. तेमध्ये त्रसदशक, स्थावरदशक तथा आठ प्रत्येक प्रकृति मेलवतां त्राणुं थाय. ते आश्रयी विशेष विवरो पहेला कर्मग्रंथना बालावरोधथी जाणवो. ए उत्तरप्रकृति कही. ॥६॥
॥ हवे उत्तर प्रकृतिनो बंध, उदय अने सत्तानो संवेध कहेजे.॥
बंधोदय संतंसा, नाणावरणं तराइए पंच॥
बंधो चरमे वि उदय, संतंसा हुंति पंचेव ॥ ७॥ अर्थ-बंधोदयसंतंसा के बंध, उदय श्रने सत्ताना अंश ते नाणावरणंतराइएपंच के ज्ञानावरणीय अने अंतराय, ए बे कर्मना पांच पांच प्रकृतिरूप सरखा , ते जणी बंधादिक स्थानकनी प्ररूपणा पण बेनी सोचेंज करे . ज्ञानावरणीयें तथा अंतरायें प्रत्येकें बंध, उदय अने सत्तारूप अंश सम नागें पांच प्रकृति होय, एटले झानावरणीयनुं पांच प्रकृतिनुं एकज बंधस्थानक होय, ए पांचे ध्रुवबंधिनी प्रकृति बे, माटें पांचेनो ध्रुवबंध जाणवो. तथा उदय पण पांचनो ध्रुव जाणवो, अने सत्तास्थानक पण पांचनुं ध्रुव जाणवू. एमज अंतरायनी पांच प्रकृति पण ध्रुवबंधिनी, ध्रवोदयिनी तथा ध्रुवसत्तायें कह। बे. हवे ए बे कर्मे संवेध कहे . ज्ञानावरणीय बंधकालें पांचनो बंध, पांचनो उदय अंने पांचनी सत्ता, ए एक नांगो, एमज अंतरायनो
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