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________________ ४७६ बंधस्वामित्वनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ थनो मत कह्यो, अने सिद्धांतने मतें बेंछियादिक चारने अपर्याप्तावस्थायें सास्वादनपणुं संजवीयें, तो त्यां मिथ्यात्वने अजावें मतिज्ञान अने श्रुतज्ञान, ए वे ज्ञान कह्यां तो ते अपेदायें बेंजियादिक चार अपर्याप्ताने पांच उपयोग संजवे बे. तथा एकेडियादिक दश जीव जेदने विषे श्रोत्रज्ञान, लब्धिज्ञान विना पण श्रुत श्रज्ञान कडं ते आहारादिक संज्ञानी अपेक्षायें कडं बे. जे नणी बुधावेदनीयना उदयश्री आ पुजलग्रहण कस्याथी महारी सुधा निवर्ते, पुष्टि होय, एवो शब्दार्थ पर्यालोचनरूप वस्तु पामवानो अशुभ अध्यवसाय, ए श्रुतनेदने थाहारसंझा कहीये. ते अध्यवसाय अव्यक्तपणे एकेंजियने पण तो आहार लेवाने प्रवर्ते बे, तथा एक स्पर्शेनेजिय. तो ए जीवोने दे अने ते विना बीजा चक्कुरादि अव्ये जिय लब्धि शून्य एवा एकेडिय कह्या ने, तो पण ते ने सूक्ष्म जावेंजिय पांचवें ज्ञान सिद्धांतें मान्युं बे. यत : “ जसुहुमं नावेंदिय, नाणं दबिंदियाण विरदेवि ॥ दवसुयानावं मि, विनावसुअंपछिवाणं ॥१॥ पंचिंदियव बउलो, नरुवसबवि सजवलंनाउं" इति विशेषावश्यकनाष्ये जेम पारो, स्त्रीनुं रूप देखीने दोडे तथा बकुलादिक फूले. ए मेलें एकेंजियने श्रुत कडं. ___ संझी पंचेंजिय अपर्याप्ताने विषे बार उपयोग मांदेला चार उपयोग न होय तेनां नाम कहे . एक मनःपर्यवज्ञान अपर्याप्तावस्थायें विरति न होय ते नणी ए ज्ञान पण न होय. तथा चतुरिंजियनो व्यापार नथी, ते माटें बीजो चनुदर्शन पण न होय, वली केवलझान अने केवलदर्शन, ए बे पण कर्मक्षयने अनावें त्यां न होय, शेष त्रण ज्ञान, त्रण अज्ञान अने बे दर्शन, ए श्राप उपयोग होय, केमके जिनादिक पुरुषो ज्ञानसहित उपजे जे ते अपेक्षायें होय. ए रीतें त्रण ज्ञान, त्रण श्रज्ञान अने बे दर्शन, ए आठ सन्निाने अपर्याप्तावस्थायें पामीये. ए सौ करण अपर्याप्ता सेवा, एटले त्रीजुं उपयोगहार जीवस्थानने विषे कयं ॥ ए॥ हवे शुनाशुन उपयोगें प्रवर्ते, ते लेश्या कहीये, तेथी उपयोगटार कह्या पनी . चोथु खेश्याछार कहे. . सन्नि उगि ब लेस अप, जा बाययरे पढम चन तिसेसेसु ॥ (अथ बंधादि चन द्वाराणि) सत्त बंधुदीरण, संतुदया अह तेरससु॥१०॥ अर्थ- सन्निपुगि के सन्निशाना बेहु नेदें बलेस के लेश्या पामीयें, तथा अपजाबायरे के अपर्याप्ता बादर एकेंजियमांहे पढ़मच के प्रथमनी चार लेश्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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